प्राचीन काल में गाधि नामक एक राजा थे।उनकी सत्यवती नाम की एक पुत्री थी।राजा गाधि ने अपनी पुत्री का विवाह महर्षि भृगु के पुत्र से करवा दिया।महर्षि भृगु इस विवाह से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होने अपनी पुत्रवधु को आशीर्वाद देकर उसे कोई भी वर मांगने को कहा।

सत्यवती ने महर्षि भृगु से अपने तथा अपनी माता के लिए पुत्र का वरदान मांगा।ये जानकर महर्षि भृगु ने यज्ञ किया और तत्पश्चात सत्यवती और उसकी माता को अलग-अलग प्रकार के दो चरू (यज्ञ के लिए पकाया हुआ अन्न) दिए और कहा कि ऋतु स्नान के बाद तुम्हारी माता पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन...
...करें और तुम भी पुत्र की इच्छा लेकर गूलर वृक्ष का आलिंगन करना। आलिंगन करने के बाद चरू का सेवन करना, इससे तुम दोनो को पुत्र प्राप्ति होगी।परंतु मां बेटी के चरू आपस में बदल जाते हैं और ये महर्षि भृगु अपनी दिव्य दृष्टि से देख लेते हैं।
भृगु ऋषि सत्यवती से कहते हैं,"पुत्री तुम्हारा और तुम्हारी माता ने एक दुसरे के चरू खा लिए हैं।इस कारण तुम्हारा पुत्र ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय सा आचरण करेगा और तुम्हारी माता का पुत्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण सा आचरण करेगा।"
इस पर सत्यवती ने भृगु ऋषि से बड़ी विनती की।
सत्यवती ने कहा,"मुझे आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण सा ही आचरण करे।"तब महर्षि ने उसे ये आशीर्वाद दे दिया कि उसका पुत्र ब्राह्मण सा ही आचरण करेगा किन्तु उसका पौत्र क्षत्रियों सा व्यवहार करेगा। सत्यवती का एक पुत्र हुआ जिसका नाम जम्दाग्नि था जो सप्त ऋषियों में से एक हैं।
आगे चलकर जम्दाग्नि ऋषि ने राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका से विवाह किया।
माता रेणुका के रुम्णवान, सुषेण, वसु, विश्ववसू और राम नाम के पांच पुत्र हुए।
जम्दाग्नि ऋषि का पांचवा पुत्र जब बड़ा हुआ तब अपने पिता की आज्ञा का पालन करने हेतु वह हिमालय जाकर भगवान शिव की साधना करने लगा।
शिवजी भगवान ने प्रसन्न होकर राम को एक परशु(फरसा)दिया जिसके कारण आगे चलकर राम,परशुराम नाम से जग प्रसिद्ध हुए।

🌺परशुराम द्वारा अपनी माता का गला काटा जाना🌺

एक दिन जम्दाग्नि ऋषि ने यज्ञ करने के लिए अपनी पत्नी को गंगा तट पर गंगाजल लाने भेजा।नदी किनारे पहुंच कर रेणुका यक्ष राक्षस..
...और अप्सराओं की जल-क्रीड़ा देख मंत्रमुग्ध हो गई और जल ले जाने में देरी हो गई।यज्ञ में देरी के कारण जम्दाग्नि बड़े क्रोधित हुए।जब रेणुका आई तो देरी का कारण पूछने पर कोई जवाब नहीं दिया।ये देख जम्दाग्नि और भी क्रोधित हुए तथा उन्होनें अपने पुत्रों को माता का वध करने को कहा।
क्योंकि परशुराम माता पिता के बड़े ही आज्ञाकारी थे,इसलिए उनके अलावा कोई और माता का वध करने को तैयार नहीं हुआ। परशुराम ने अपने फरसे से माता का गला काट के अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। उनकी ये आज्ञाकारिता देख जम्दाग्नि बहुत प्रसन्न हुए एवं परशुराम से वर मांगने को कहा।
परशुराम जी ने अविलम्ब अपनी माता को पुन:जीवित करने तथा उनके द्वारा वध किए जाने की स्मृति नष्ट होने और अपने लिए अमरत्व का वरदान मांग लिया। वैदिक सनातन धर्म की धार्मिक व पौराणिक मान्यताओं के अनुसार परशुराम जी विश्व के अष्ट चिरन्जिवियों में से एक हैं ।
🌺भगवान परशुराम द्वारा 21बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन किया जाना🌺

उसकाल में हैह्यवंशी राजाओं का अत्याचार बहुत ज्यादा बढ़ गया था।भार्गव और हैह्यवंशियों की पुरानी दुश्मनी चली आ रही थी।एकबार हैह्यवंशी राजा सहस्रबाहु के पुत्र जबरदस्ती जम्दाग्नि ऋषि के आश्रम की कामधेनु गाय को ले गए।
अपने पिता का तिरस्कार देख परशुराम बड़े क्रोधित हुए और जाकर राजा सहस्रबाहु का वध कर दिया।राजा के पुत्रों ने परशुराम से बदला लेने के लिए जम्दाग्नि ऋषि का वध कर दिया।परशुराम ने अपने पिता के शरीर पे 21 घाव देख कर ये प्रतिज्ञा ली कि वह इस पृथ्वी से समस्त क्षत्रियों का संहार कर देंगे।
इसके बाद पुरे 21बार उन्होने पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की।क्षत्रियों की पत्नियों को परशुराम ने जीवित छोड़ दिया जिससे क्षत्रियों की नई पीढ़ी ने जन्म लिया।अन्त में पित्तरों की आकाशवाणी सुन उन्होने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़ कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया।
🌺भगवान गणेश व परशुराम जी की युद्ध कथा🌺

एकबार परशुराम अपने इष्टदेव महादेव के दर्शन हेतु कैलाश पहुंचे।वहां भगवान शिव कक्ष में माता पार्वती के साथ विराजमान थे और उन्हें कथा सुना रहे थे।कोई बाधा उत्पन्न न हो इसलिए गणेश को अपना दिव्य त्रिशूल दे उन्हे द्वार के बाहर पहरा देने को कहा।
परशुराम कैलाश पहुंचके सीधे कक्ष में प्रवेश करने लगे तब गणेश जी ने द्वार पर उन्हें रोका।परशुराम बोले कि तुम मुझे द्वार पे रोकने वाले होते कौन हो?गणेश ने कहा कि ये भगवान शिव की आज्ञा है।परशुराम जबरदस्ती अन्दर जाने का प्रयास करने लगे तो गणेश जी ने शिव त्रिशूल दिखाकर उन्हें पुन:रोका।
इस कारण परशुराम जी और गणेश जी के बीच भयंकर युद्ध शुरु हो गया।परशुराम जी ने अपने परशु से गणेश जी पर आक्रमण कर दिया जिस कारण गणेशजी का एक दांत टूट गया।तभी से गणेश जी एकदंत कहलाए जाने लगे।

🌺रामायण में परशुराम जी का वर्णन🌺

रामचरितमानस के बालकाण्ड में परशुराम जी का वर्णन मिलता है।
जब सीता स्वयंवर में प्रभु राम द्वारा शिव धनुष तोड़ दिया जाता है तब धनुष के टूटने की आवाज़ सुन परशुराम वहां पहुंच जाते हैं । क्रोधित होकर वे पूछते हैं कि किसने मेरे अराध्य का धनुष तोड़ा है। प्रभु राम उन्हे नतमस्तक होकर कहते हैं कि मैने ये शिव धनुष तोड़ा है।
परशुराम तब अपनी दिव्य दृष्टि से ये देख लेते हैं कि राम स्वयं प्रभु नारायण हैं तथा उन्हें प्रणाम कर वहां से चले जाते हैं ।

🌺परशुराम जी का वर्णन महाभारत कथा में भी मिलता है🌺

भगवान परशुराम कर्ण,भीष्म तथा द्रोणाचार्य के गुरु थे।जब अपने अपमान का बदला लेने के लिए व न्याय मांगने...
..के लिए अम्बा परशुराम के पास जाती है तो परशुराम अम्बा को न्याय दिलाने खातिर भीष्म से युद्ध करते हैं।ये भीषण युद्घ 23दिन तक चला लेकिन इच्छा मृत्यु के वरदान के कारण परशुराम भीष्म को पराजित नहीं कर पाए।

हमारे ग्रंथों के अनुसार भगवान परशुराम विश्व के अष्ट चिरंजीवियों में से एक हैं।
वे अजर-अमर हैं और किसी समाज विशेष के आदर्श न होकर, सम्पूर्ण वैदिक सनातन धर्म को मानने वाले सभी सनातनी हिन्दुओं के आदर्श हैं।उन्होने ही श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध कराया था।श्रीमदभागवत पुराण , ब्रह्मवैवर्त पुराण तथा कल्कि पुराण में भी उनका उल्लेख मिलता है।
मान्यता है कि महेंद्रगिरि पर्वत पर परशुराम की तपोस्थली है और वे उसी पर्वत पर कल्पान्त तक तपस्यारत रहेंगे व कलिकाल के अन्तमें उपस्थित होंगे।
भगवान परशुराम को श्रीविष्णु का छठा अवतार माना गया है।सप्तऋषियों में से एक जम्दाग्नि के पुत्र होने के कारण इन्हें 'जामदग्न्य'भी कहा जाता है।
भगवान परशुराम जी एक ऐसे सच्चे शूरवीर थे जिनका जन्म पृथ्वी पर धर्म,संस्कृति,न्याय,सदाचार व सत्य की रक्षा करने के लिए हुआ था।

"ऊँ जामदग्न्याय विद्यम्हे महावीराय धीमहि,
तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात् ।"

जयतु सनातन 🌺🙏🚩

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राम-रावण युद्ध समाप्त हो चुका था। जगत को त्रास देने वाला रावण अपने कुटुम्ब सहित नष्ट हो चुका था।श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ और अयोध्या नरेश श्री राम के नेतृत्व में चारों दिशाओं में शन्ति थी।
अंगद को विदा करते समय राम रो पड़े थे ।हनुमान को विदा करने की शक्ति तो राम में थी ही नहीं ।


माता सीता भी हनुमान को पुत्रवत मानती थी। अत: हनुमान अयोध्या में ही रह गए ।राम दिनभर दरबार में, शासन व्यवस्था में व्यस्त रहते थे। संध्या को जब शासकीय कार्यों में छूट मिलती तो गुरु और माताओं का कुशल-मंगल पूछ अपने कक्ष में जाते थे। परंतु हनुमान जी हमेशा उनके पीछे-पीछे ही रहते थे ।


उनकी उपस्थिति में ही सारा परिवार बहुत देर तक जी भर बातें करता ।फिर भरत को ध्यान आया कि भैया-भाभी को भी एकांत मिलना चाहिए ।उर्मिला को देख भी उनके मन में हूक उठती थी कि इस पतिव्रता को भी अपने पति का सानिध्य चाहिए ।

एक दिन भरत ने हनुमान जी से कहा,"हे पवनपुत्र! सीता भाभी को राम भैया के साथ एकांत में रहने का भी अधिकार प्राप्त है ।क्या आपको उनके माथे पर सिन्दूर नहीं दिखता?इसलिए संध्या पश्चात आप राम भैया को कृप्या अकेला छोड़ दिया करें "।
ये सुनकर हनुमान आश्चर्यचकित रह गए और सीता माता के पास गए ।


माता से हनुमान ने पूछा,"माता आप अपने माथे पर सिन्दूर क्यों लगाती हैं।" यह सुनकर सीता माता बोलीं,"स्त्री अपने माथे पर सिन्दूर लगाती है तो उसके पति की आयु में वृद्धि होती है और वह स्वस्थ रहते हैं "। फिर हनुमान जी प्रभु राम के पास गए ।
शमशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायी और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में अपने तीन वर्ष के बालक को रख के स्वयं चिता पे बैठ कर सती हो गयी ।इस प्रकार ऋषी दधीचि और उनकी पत्नी की मुक्ति हो गयी।


परन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़पने लगा। जब कुछ नहीं मिला तो वो कोटर में पड़े पीपल के गोदों (फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के फलों और पत्तों को खाकर बालक का जीवन किसी प्रकार सुरक्षित रहा।

एक दिन देवर्षि नारद वहां से गुजर रहे थे ।नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देख कर उसका परिचय मांगा -
नारद बोले - बालक तुम कौन हो?
बालक - यही तो मैं भी जानना चहता हूँ ।
नारद - तुम्हारे जनक कौन हैं?
बालक - यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ ।

तब नारद ने आँखें बन्द कर ध्यान लगाया ।


तत्पश्चात आश्चर्यचकित हो कर बालक को बताया कि 'हे बालक! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो । तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्रास्त्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी।तुम्हारे पिता की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी'।

बालक - मेरे पिता की अकाल मृत्यु का क्या कारण था?
नारद - तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।
बालक - मेरे उपर आयी विपत्ति का कारण क्या था?
नारद - शनिदेव की महादशा।
इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर बड़े हुए उस बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।

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॥ॐ॥
अस्य श्री गायत्री ध्यान श्लोक:
(gAyatri dhyAna shlOka)
• This shloka to meditate personified form of वेदमाता गायत्री was given by Bhagwaan Brahma to Sage yAgnavalkya (याज्ञवल्क्य).

• 14th shloka of गायत्री कवचम् which is taken from वशिष्ठ संहिता, goes as follows..


• मुक्ता-विद्रुम-हेम-नील धवलच्छायैर्मुखस्त्रीक्षणै:।
muktA vidruma hEma nIla dhavalachhAyaiH mukhaistrlkShaNaiH.

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yuktAmindukalA nibaddha makutAm tatvArtha varNAtmikam.

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