राम-रावण युद्ध समाप्त हो चुका था। जगत को त्रास देने वाला रावण अपने कुटुम्ब सहित नष्ट हो चुका था।श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ और अयोध्या नरेश श्री राम के नेतृत्व में चारों दिशाओं में शन्ति थी।
अंगद को विदा करते समय राम रो पड़े थे ।हनुमान को विदा करने की शक्ति तो राम में थी ही नहीं ।

माता सीता भी हनुमान को पुत्रवत मानती थी। अत: हनुमान अयोध्या में ही रह गए ।राम दिनभर दरबार में, शासन व्यवस्था में व्यस्त रहते थे। संध्या को जब शासकीय कार्यों में छूट मिलती तो गुरु और माताओं का कुशल-मंगल पूछ अपने कक्ष में जाते थे। परंतु हनुमान जी हमेशा उनके पीछे-पीछे ही रहते थे ।
उनकी उपस्थिति में ही सारा परिवार बहुत देर तक जी भर बातें करता ।फिर भरत को ध्यान आया कि भैया-भाभी को भी एकांत मिलना चाहिए ।उर्मिला को देख भी उनके मन में हूक उठती थी कि इस पतिव्रता को भी अपने पति का सानिध्य चाहिए ।
एक दिन भरत ने हनुमान जी से कहा,"हे पवनपुत्र! सीता भाभी को राम भैया के साथ एकांत में रहने का भी अधिकार प्राप्त है ।क्या आपको उनके माथे पर सिन्दूर नहीं दिखता?इसलिए संध्या पश्चात आप राम भैया को कृप्या अकेला छोड़ दिया करें "।
ये सुनकर हनुमान आश्चर्यचकित रह गए और सीता माता के पास गए ।
माता से हनुमान ने पूछा,"माता आप अपने माथे पर सिन्दूर क्यों लगाती हैं।" यह सुनकर सीता माता बोलीं,"स्त्री अपने माथे पर सिन्दूर लगाती है तो उसके पति की आयु में वृद्धि होती है और वह स्वस्थ रहते हैं "। फिर हनुमान जी प्रभु राम के पास गए ।
हनुमान जी प्रभु श्रीराम से बोले,"प्रभु, क्या ये सिन्दूर लगाने से किसी को आपके पास रहने का अधिकार प्राप्त हो जता है ?" श्रीराम मुस्कुराते हुए बोले,"अवश्य। ये तो सनातन प्रथा है हनुमान ।" यह सुनकर हनुमान जी मायूस हो गए और प्रभु राम और माता जानकी को प्रणाम कर वहां से बाहर चले गए ।
प्रात: राजा राम का दरबार लगा और साधारण औपचारिक कार्य हो रहे थे कि नगर के प्रतिष्ठित व्यापारी न्याय मांगते दरबार में उपस्थित हुए। ज्ञात हुआ कि पूरी अयोध्या में रात भर व्यापारियों के भंडारों को तोड़-तोड़ कर हनुमान उत्पात मचाते रहे थे।
श्रीराम ने जब ये सुना तो तुरंत ही सैनिकों को आदेश दिया कि हनुमान को राजसभा में उपस्थित किया जाए ।रामाज्ञा का पालन करने सैनिक अभी निकले भी नहीं थे कि केसरिया रंग में रंगे-पुते हनुमान जी अपनी चौड़ी मुस्कान लिए और मस्तानी चाल चलते हुए सभा में उपस्थित हुए ।
उनका पूरा शरीर सिन्दूर से रंगा हुआ था ।एक एक पग धरने पर उनके शरीर से एक एक सेर सिन्दूर धरती पर गिर जाता ।उनकी चाल के साथ पीछे की ओर वायु के साथ सिन्दूर उड़ता रहता ।राम के निकट आकर उन्होंने प्रणाम किया ।अभी तक सन्न होकर देखती सभा एकाएक ज़ोर से हँसने लगी और लोग कहने लगे कि बन्दर...
...ने आखिर बंदरों वाला ही काम किया।अपनी हँसी को रोकते हुए सौमित्र लक्ष्मण बोले,"यह क्या किया कपिश्रेष्ठ ? ये सिन्दूर से स्नान क्यों? क्या ये आप वानरों की कोई प्रथा है?" इसपर हनुमान प्रफुल्लित स्वर में बोले,"अरे नहीं भैया ।यह तो आर्यों की प्रथा है ।मुझे कल ही पता चला कि...
...अगर एक चुटकी सिन्दूर लगा लो तो प्रभु राम के निकट रहने का अधिकार मिलेगा, उनकी आयु में वृद्धि होगी और वे हमेशा स्वस्थ रहेंगे ।तो मैने सारी अयोध्या का सिन्दूर लगा लिया। क्यों प्रभु, अब तो मुझे कोई आपसे दूर नहीं कर पाएगा न?" सारी सभा हँस रही थी और भरत हाथ जोड़े अश्रु बहा रहे थे।
ये देख शत्रुघ्न बोले,"भैया, सब हँस रहे हैं और आप रो रहे हैं ? क्या हुआ?" भरत स्वयं को संभालते हुए बोले,"तुम देख नहीं रहे ! वानरों का एक श्रेष्ठ नेता, वानारराज का सबसे विद्वान मन्त्री, कदाचित सम्पूर्ण विश्व का सर्वश्रेष्ठ वीर, सभी सिद्धियों, सभी निधियों का स्वामी, वेद पारंगत...
...शास्त्र मर्मज्ञ यह कपिश्रेष्ठ अपना सारा गर्व , सारा ज्ञान भूल कैसे रामभक्ति में लीन है ।राम की निकटता प्राप्त करने की कैसी उत्कंठ इच्छा , जो ये स्वयं को भूल चुका है।ऐसी भक्ति का वरदान कदाचित ब्रह्मा भी किसी को न दे पाएं ।मुझ भरत को राम का अनुज मान भले ही कोई याद करले...
...परंतु इस भक्त शिरोमणि हनुमान को संसार कभी नहीं भूल पाएगा ।"

सत्य है कि श्री हनुमान जैसा रामभक्त न कभी हुआ और न कभी होगा।

अत: तबसे ही सिन्दूर हनुमान जी को बहुत पसंद है और हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिये उन्हें सिन्दूर अवश्य चढ़ाया जाता है।

जय श्री राम 💞
जय श्री हनुमान 🙏

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शमशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायी और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में अपने तीन वर्ष के बालक को रख के स्वयं चिता पे बैठ कर सती हो गयी ।इस प्रकार ऋषी दधीचि और उनकी पत्नी की मुक्ति हो गयी।


परन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़पने लगा। जब कुछ नहीं मिला तो वो कोटर में पड़े पीपल के गोदों (फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के फलों और पत्तों को खाकर बालक का जीवन किसी प्रकार सुरक्षित रहा।

एक दिन देवर्षि नारद वहां से गुजर रहे थे ।नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देख कर उसका परिचय मांगा -
नारद बोले - बालक तुम कौन हो?
बालक - यही तो मैं भी जानना चहता हूँ ।
नारद - तुम्हारे जनक कौन हैं?
बालक - यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ ।

तब नारद ने आँखें बन्द कर ध्यान लगाया ।


तत्पश्चात आश्चर्यचकित हो कर बालक को बताया कि 'हे बालक! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो । तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्रास्त्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी।तुम्हारे पिता की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी'।

बालक - मेरे पिता की अकाल मृत्यु का क्या कारण था?
नारद - तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।
बालक - मेरे उपर आयी विपत्ति का कारण क्या था?
नारद - शनिदेव की महादशा।
इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर बड़े हुए उस बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।

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