दधीचि ऋषि को मनाही थी कि वह अश्विनी कुमारों को किसी भी अवस्था में ब्रह्मविद्या का उपदेश नहीं दें। ये आदेश देवराज इन्द्र का था।वह नहीं चाहते थे कि उनके सिंहासन को प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से कोई भी खतरा हो।मगर जब अश्विनी कुमारों ने सहृदय प्रार्थना की तो महर्षि सहर्ष मान गए।

और उन्होनें ब्रह्मविद्या का ज्ञान अश्विनि कुमारों को दे दिया। गुप्तचरों के माध्यम से जब खबर इन्द्रदेव तक पहुंची तो वे क्रोध में खड़ग ले कर गए और महर्षि दधीचि का सर धड़ से अलग कर दिया।मगर अश्विनी कुमार भी कहां चुप बैठने वाले थे।उन्होने तुरंत एक अश्व का सिर महर्षि के धड़ पे...
...प्रत्यारोपित कर उन्हें जीवित रख लिया।उस दिन के पश्चात महर्षि दधीचि अश्वशिरा भी कहलाए जाने लगे।अब आगे सुनिये की किस प्रकार महर्षि दधीचि का सर काटने वाले इन्द्र कैसे अपनी रक्षा हेतु उनके आगे गिड़गिड़ाए ।

एक बार देवराज इन्द्र अपनी सभा में बैठे थे, तो उन्हे खुद पर अभिमान हो आया।
वे सोचने लगे कि हम तीनों लोकों के स्वामी हैं। ब्राह्मण हमें यज्ञ में आहुति देते हैं और हमारी उपासना करते हैं। फिर हम सामान्य ब्राह्मण बृहस्पति से क्यों डरते हैं ?उनके आने पर क्यों खड़े हो जाते हैं?वे तो हमारी जीविका से पलते हैं। देवर्षि बृहस्पति देवताओं के गुरु थे।
अभिमान के कारण ऋषि बृहस्पति के पधारने पर न तो इन्द्र ही खड़े हुए और न ही अन्य देवों को खड़े होने दिया।देवगुरु बृहस्पति इन्द्र का ये कठोर दुर्व्यवहार देख कर चुप चाप वहां से लौट गए।कुछ देर पश्चात जब देवराज का मद उतरा तो उन्हे अपनी गलती का एहसास हुआ।
वे देवगुरु के पास अपने कृत्य का पश्चाताप करने गए परंतु उन्हें वे नहीं मिले क्योंकि वे कहीं अज्ञातवास में चले गए थे।निराश होकर इन्द्र लौट आए। गुरु के बिना यज्ञ कौन कराए और यज्ञ के बिना देवता शक्तिहीन होने लगे।
असुरों को जब ये ज्ञात हुआ तो उन्होने तुरंत अपने गुरु शुक्राचार्या...
...की सम्मति से देवताओं पर आक्रमण कर दिया।देवेन्द्र समेत सभी देवताओं को स्वर्ग छोड़ना पड़ा।स्वर्ग पर असुरों का अधिकार हो गया।देवता अपनी सहायता हेतु ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी ने कहा,"त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को अपना गुरु बनाकर काम चलाओ।"
देवताओं ने ऐसा ही किया।विश्वरूप बड़े विद्वान,वेदज्ञ और सदाचारी थे किन्तु उनकी माता असुर कुल की थी, जिस वजह से वे कभी कभी छिपकर असुरों को भी यज्ञाहुतियों का कुछ भाग दे देते थे। इससे असुरों के बल में भी वृद्धि होने लगी।इन्द्र को जब ये पता चला तो उसने विश्वरूप का सर काट लिया।
इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का दोष लग गया।बहुत सारी क्षमा-याचना और मान-मन्नौवल करने के बाद गुरु बृहस्पति जी मान गए ।उन्होने यज्ञ आदि कराकर इन्द्र का ब्रह्महत्या दोष दूर किया।देवता फिर बलशाली हुए और उनका फिरसे स्वर्ग पर अधिकार हो गया।
उधर त्वष्टा ऋषि ने अपने पुत्रहत्या का बदला लेने के लिए अपने तप के प्रभाव से एक बड़े पराक्रमी राक्षस वृत्रासुर को उत्पन्न किया।उसके जन्म से तीनों लोक भयभीत हो गए।इन्द्र को मारने के लिए वृत्रासुर निकल पड़ा।इन्द्र दौड़े दौड़े ब्रह्माजी के पास गए व अपनी जान बचाने का उपाए पूछने लगे।
ब्रह्माजी बोले,"इन्द्र! तुम वृत्रासुर से किसी प्रकार नहीं बच सकते। वह बड़ा बली,तपस्वी और ईश्वर भक्त है।उसे मारने का एक ही उपाय है। नैमिषारण्य में महर्षि दधीचि तपस्या कर रहे हैं।भगवान शिव के वरदान से उनकी हड्डियां वज्र से भी अधिक मजबूत हैं।
यदि वे अपनी हड्डियां तुम्हें दान दे दें तो तुम उनसे वज्र का निर्माण करो,उसी वज्र के प्रहार से वृत्रासुर की मृत्यु संभव है अन्यथा नहीं।" इन्द्र समस्त देवताओं को ले नैमिषरण्य पहुंचे।उग्र तपस्या में लीन महर्षि की उन्होनें बड़ी स्तुति की। ऋषि ने प्रसन्न होकर उनसे वरदान मांगने को कहा।
इन्द्र ने उन्हें सारा वृत्तांत सुनाया व हाथ जोड़कर उनसे विनती की,"हे महर्षि!आप मुझे अपनी हड्डियां दान में दें जिनसे मैं वज्र का निर्माण कर वृत्रासुर का वध कर सकूं।"
ऋषि दधीचि बोले,"देवराज!समस्त देह धारियों को अपनी देह प्यारी होती है।स्वेच्छा से देह त्याग करना कठिन कार्य होता है।
किन्तु तीनों लोकों के मंगल के निमित्त मैं यह कार्य करने को भी तैयार हूं।बस मेरी तीर्थ करने की इच्छा थी।"तब इन्द्र बोले,"महर्षि! मैं आपकी इच्छा पूर्ण करने के लिए सभी तीर्थों को नैमिषरण्य ले आऊंगा।" ये कहकर देवराज इन्द्र समस्त तीर्थों को नैमिषरण्य ले आए।
ऋषि ने प्रसन्न होकर सब में स्नान,आचमन आदि किया और फिर वे समाधि में लीन हो गए।समाधि में बैठने के पश्चात उन्होनें अपना शरीर त्याग दिया। तब इन्द्र ने महर्षि की हड्डियों से महान शक्तिशाली तेजोमय दिव्य वज्रास्त्र बनाया और वृत्रासुर का वध कर तीनों लोकों को उसके भय से मुक्त किया।
यहां एक बात का और स्मरण करें की महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्रास्त्र बनाने के पश्चात जो हड्डियां बची थीं उन्हीं हड्डियों से भगवान शिव का पिनाक धनुष बना था जिसे तोड़ भगवान राम ने सीता माता से विवाह किया था।
इस प्रकार एक महान ऋषि के अद्वितीय त्याग से देवराज इन्द्र का कष्ट दूर हुआ और तीनों लोक सुखी हुए। ये वही इन्द्र थे जिन्होने महर्षि दधीचि के साथ घोर अन्याय किया था जब अश्विनिकुमारो को ब्रह्मविद्या देने के कारण इन्द्र ने उनका सिर लील लिया था।
जिस इन्द्र ने इनके साथ इतना दुष्ट व्यवहार किया था उसी इन्द्र की महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डी देकर सहायता की।संतों की उदारता ऐसी ही होती है।ऋषि दधीचि का ये त्याग परोपकारी संतों के लिए एक परम आदर्श है ।

ऊँ नम: शिवाए...💞🌺🙏

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THE MEANING, SIGNIFICANCE AND HISTORY OF SWASTIK

The Swastik is a geometrical figure and an ancient religious icon. Swastik has been Sanatan Dharma’s symbol of auspiciousness – mangalya since time immemorial.


The name swastika comes from Sanskrit (Devanagari: स्वस्तिक, pronounced: swastik) &denotes “conducive to wellbeing or auspicious”.
The word Swastik has a definite etymological origin in Sanskrit. It is derived from the roots su – meaning “well or auspicious” & as meaning “being”.


"सु अस्ति येन तत स्वस्तिकं"
Swastik is de symbol through which everything auspicios occurs

Scholars believe word’s origin in Vedas,known as Swasti mantra;

"🕉स्वस्ति ना इन्द्रो वृधश्रवाहा
स्वस्ति ना पूषा विश्ववेदाहा
स्वस्तिनास्तरक्ष्यो अरिश्तनेमिही
स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु"


It translates to," O famed Indra, redeem us. O Pusha, the beholder of all knowledge, redeem us. Redeem us O Garudji, of limitless speed and O Bruhaspati, redeem us".

SWASTIK’s COSMIC ORIGIN

The Swastika represents the living creation in the whole Cosmos.


Hindu astronomers divide the ecliptic circle of cosmos in 27 divisions called
https://t.co/sLeuV1R2eQ this manner a cross forms in 4 directions in the celestial sky. At centre of this cross is Dhruva(Polestar). In a line from Dhruva, the stars known as Saptarishi can be observed.

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