#Thread जो अंगूठी भगवान राम ने सीता जी की खोज के समय हनुमानजी को दी थी क्या था उस दिव्य अंगूठी का रहस्य...

एक बार कुछ देवतागण, ऋषि पाताल में जाकर शेषनाग जी से कुछ वार्तालाप कर रहे थे। इसी दौरान किसी ऋषि ने कुछ ऐसा कहा जिससे वह सब हंसने लगे। शेषनाग जी भी अपनी हंसी रोक नहीं पाए और जोर-जोर से हंसने लगे जिस कारण उनके फनों पर स्थित धरती हिलने लगी।
जिसे देखकर ऋषियों में मौजूद अष्टावक्र जी ने अपने हाथों का सहारा देकर धरती को बचा लिया। यह देखकर शेषनाग जी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रसन्नता सवरूप अष्टावक्र जी को एक दिव्य अंगूठी दी और कहा यह अंगूठी बहुत ही दिव्य है। इसे धारण कर लीजिए और अगर आप इसे उतारें तो दोबारा मत पहने।
अष्टावक्र जी के प्रिय शिष्य थे राजा अज जो कि महाराज दशरथ के पिता थे। एक बार प्रसन्न होने पर अष्टावक्र जी ने वह अंगूठी राजा अज को दे दी और कहा इसे धारण कर लीजिए। राजन यह बहुत दिव्य अंगूठी है। परंतु कभी भी इस अंगूठी को उतारना मत अगर किसी कारणवश इसे उतारना पड़े तो दोबारा मत पहनना।
जब विवाह उपरांत माता सीता ने पहली बार भोजन बनाया तो भोजन से प्रसन्न होकर महाराज दशरथ ने वह अंगूठी अपनी पुत्रवधू को उपहार स्वरूप दे दी। जब रामचंद्र भगवान, सीता जी, लक्ष्मण जी वनवास के लिए निकले तो सब ने अपने आभूषणों का त्याग किया।
सिर्फ सीता जी ने अपने आभूषणों का त्याग नहीं किया था। जब केवट ने भगवान रामचंद्र, माता सीता, लक्ष्मण जी को गंगा पार कराई तो केवट को देने के लिए रामचंद्र जी के पास कुछ नहीं था। यह देखकर माता सीता ने वह अंगूठी उतार कर श्री रामचंद्र जी को दे दी, जो कि वह केवट को दे सकें।
परंतु केवट ने वह अंगूठी लेने से मना कर दिया। उसने कहा प्रभु मुझे तो आप के दर्शन से ही मोक्ष प्राप्त हो गया है। मुझे अब किसी चीज की अभिलाषा नहीं, तब रामचंद्र जी ने वह अंगूठी स्वयं धारण कर ली। जब सीता जी की खोज के लिए सेनाओं को विपरीत दिशाओं में भेजा जा रहा था।
तब हनुमानजी ने श्री रामचंद्र जी से कहा, हे प्रभु मुझे कुछ ऐसा दीजिए जिससे सीता माता यह पहचान सकें की मैं आपका ही दूत हूँ, तब रामचंद्र जी ने वह अंगूठी उतार कर हनुमान जी को दे दी और कहा कि हनुमान जब तुम इसे सीता को दोगे तो वह पहचान जाएगी कि तुम मेरे ही दूत हो।
जब अशोक वाटिका पहुंचकर हनुमान जी ने वह दिव्य अंगूठी सीता जी को दी तो वह पहचान गई कि हनुमानजी,श्रीराम के ही दूत हैं।
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#Thread 1 नवंबर 1979, समय: रात्रि 1 बजे श्री तिरुपति बालाजी मंदिर के गर्भगृह में लटकी विशाल कांस्य घंटियाँ अपने आप बजने लगी।


यह चमत्कारी घटना क्यों हुई और कैसे हुई यह जानने से पहले हमें इस घटना के घटित होने से एक सप्ताह पहले के बारे में जानना होगा। उस समय तिरुमला क्षेत्र पानी की भारी किल्लत से जूझ रहा था। सूखे की स्थिति बन चुकी थी।


तिरुमला पहाड़ी पर पीने के पानी के कुएं भी सूख रहे थे (वर्तमान पापा नासनम जलाशय तब निर्माणाधीन था)। गोगरभम जलाशय का जल स्तर भी तेजी से घट रहा था। मंदिर प्रशासन कड़े निर्णय लेने पर मजबूर था।


तीव्र जल संकट से बहुत परेशान, तिरुमला तिरुपति देवस्थानम बोर्ड के कार्यकारी अधिकारी पीवीआरके प्रसाद ने तुरंत तिरुमला में चल रहे जल संकट से निपटने के उपायों पर चर्चा करने के लिए अपने थिंक टैंक की एक आपातकालीन बैठक बुलाई।


इंजीनियरों ने पूरी तरह से असहाय होने का अनुरोध किया और बदले में कार्यकारी अधिकारी को चेतावनी देते हुए कहा, "तिरुमला मंदिर के टैंकों और जलाशयों में अब बहुत कम पानी के भंडार हैं जिन्हें केवल बहुत सीमित समय के लिए ही परोसा जा सकता है।

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