निकाल कर प्रारंभ से ले कर अंत तक इस थ्रेड को पढ़ें यदि पढ़ने के उपरांत कोई शंका हुई तो उसका समाधान समय मिलने पर शास्त्रीय प्रमाणों के द्वारा किया जाएगा।
आज हम इस थ्रेड मे ४ प्रश्नों पर विचार करेंगे यथा –
१.वर्ण व्यवस्था जन्मना होती है या कर्मणा ? शास्त्रीय पक्ष क्या है ?
२.क्या वर्ण और जाती अलग अलग है ?
३.क्या वर्ण एवं जातियों का प्रभेद समाप्त कर सबका हिन्दू हो जाना ठीक है ?
४.क्या हिंदुओं का पतन वर्ण व्यवस्था के कारण हुआ है या हो रहा है ?
इन सभी प्रश्नों का निराकरण शास्त्रीय पक्षों एवं तर्कों के आधार पर किया जाएगा जिन महानुभावो को कष्ट या
आपत्ति हो वो गाल बजाने अर्थात कुतर्क करने की अपेक्षा शास्त्रीय पक्ष के द्वारा पूर्वपक्ष करने मे स्वतंत्र हैं उसका समुचित उत्तर समय मिलने पर दिया जाएगा । अमर्यादित टिप्पणी करने पर सीधा ब्लॉक किये जाएंगे अतः सावधान रहें -
अब हम अपने विषय पर आते हैं, हमारा पहला प्रश्न ये है की -
१. वर्ण व्यवस्था जन्मना होती है या कर्मणा ? शास्त्रीय पक्ष क्या है ?
उत्तर - आए दिन हम “वर्णव्यवस्था जन्मना या कर्मणा” इस चर्चा को देखते रहते हैं इस चर्चा मे पूर्वाग्रह से ग्रसित कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी पुराणेतिहास, स्मृति, गीता आदि आर्ष ग्रंथों के किसी एक श्लोक अथवा वचन को उठा
कर उसका सर्वथा विपरीत अर्थ करके जनसामान्य को भ्रमित करते हैं की वर्ण व्यवस्था जन्म से न होकर कर्म से होती है कहना गलत न होगा की इस विषय पर सबसे अधिक दुष्प्रचार दयानंदियों (आर्यसमाजियों) ने किया है। यद्यपि इन धूर्तों का प्रामाणिक रीति से अनेकों बार खंडन अनेकों आचार्यों ने पूर्व मे
ही कर दिया है लेकिन निर्लज्जता की पराकाष्ठा पर कर चुके ये निकृष्ट आए दिन अपना रंग दिखाते रहते हैं। यद्यपि सुधि ओर विवेकी जन ऐसे अनर्गल प्रलापों से विचलित नहीं होते क्युकी वे अनादिकाल से चले आ रहे अपने पूर्वजों द्वारा परिरक्षित “रज और वीर्य” की शुद्धता का महत्व जानते हैं किन्तु
कुछ युवा इन धूर्तों के द्वारा दिए गए अनर्गल तर्कों के चपेट मे आ कर अपने कुल परम्परा, गोत्र परम्परा, जाती परम्परा को अतार्किक और ढकोशला समझने की भूल करने लगते हैं इन सभी शंकाओं का समाधान आज हम करेंगे लेकिन इस से पूर्व ऐसा मानने वाले सभी लोगो से मैं प्रार्थना करूंगा की वे स्वयं से
कुछ प्रश्नों को पूछें यथा- जिस कुल मर्यादा, गोत्र मर्यादा, जाती मर्यादा एवं रोटी बेटी के मर्यादा का निर्वहन मेरे पूर्वजों ने हजारों वर्षों से शुद्धता के साथ किया है क्या वे सभी मूर्ख थे ? क्या उनके मन मे ये विचार नहीं आए होंगे की ये सब सामाजिक मर्यादाएं दकियानुशी हैं इनका
कोई लाभ नहीं ? क्या अपने कुल के हजारों वर्षों के इतिहास मे मै ही सबसे बद्धिमान जन्म लिया हूँ जो ये सब सोचता है ? क्या मेरे पिता, दादा, परदादा सब मूर्ख थे ? इन सभी प्रश्नों पर विचार करने का लाभ ये होगा की फिर आपके मन मे जिज्ञासा उत्पन्न होगी की आखिर सत्य क्या है ? तथा ऐसा होने पर
आप सत्य को बिना किसी भेदभाव के शास्त्रों के स्वाध्याय और प्रामाणिक आचार्यों को श्रवण करके यथार्थ रूप मे स्वीकार करने की स्थिति मे आ जाएंगे।अब हम अपने पक्ष पर आते हैं। प्रामाणिक रीति से शास्त्रों का निरीक्षण परीक्षण करने पर हम पाते हैं की वास्तव मे वर्ण व्यवस्था जन्म से ही होती है
कर्म से नहीं! कर्म से तो वर्णगत व्यक्ति का उत्कर्ष और अपकर्ष होता है जैसे कोई ब्राह्मण हो कर ब्राह्मणोचित मर्यादा- संध्या, तर्पण, अग्निहोत्र, वेदाध्ययन इत्यादि करता है तो वो उत्तम कोटी का ब्राह्मण हुआ किन्तु इसके विपरीत माँस ,मदिरा, व्याभिचार करे तो अधम और निकृष्ट कोटी
का ब्राह्मण होता है जिसकी लोक मे नींदा भी होती है। वर्णाश्रम विरोधि प्रायः गीता के इस श्लोक का -
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
(गीत ४/१३)
सर्वथा विपरीत अर्थ कर के सिद्ध करते हैं की भगवान ने चारों वर्णों की रचना गुण-कर्म
के आधार पर की है यहाँ वे गुण का अर्थ विद्या,बल,पौरुष आदि लौकिक गुणों से करते हैं तथा कर्म का अर्थ पठन, पाठन इत्यादि कर अनभिज्ञ लोगों को बर्गला देते हैं की वर्ण का निर्धारण जन्म से नही होता कर्म से होता है। इस तर्क मे ध्यान देने योग्य एक बात है की वे कमसे कम एक बात तो स्वीकार
करते हैं की वर्ण व्यवस्था भगवान के द्वारा ही निर्मित है क्युकी हमने तो कइ बैलबुद्धियों को ये तक कहते सुना है की ये वर्ण व्यवस्था ब्राह्मणों ने बनाई है। खैर यदि हम क्षणभर के लिए इस तर्क को स्वीकार कर कर्म के अनुसार वर्ण का निश्चय करने चलें तो प्रत्येक व्यक्ति या तो सब वर्णों का
होगा या फिर उसका कोइ वर्ण नहीं होगा,जैसे की कल्पना करिए की जन्म से आप ब्राह्मण हैं तथा आप ब्राह्मणोचित कर्म जैसे वेदाध्ययन, संध्या, तर्पणादी करते हैं किन्तु आप पहलवानी तथा अस्त्र-शस्त्र का अभ्यास भी करते हैं, साथ मे आपको लेन, देन, वाणिज्य व्यापार आदि करने मे भी कुशलता प्राप्त है
इसके अतिरिक्त आपको समाजसेवा करना भी बहोत रुचिकर लगता है, अब यदि आपसे कोई पूछे की आप कौन से वर्ण के हैं ? तो आप क्या उत्तर देंगे ? क्युकी यदि कर्म के अनुसार विचार करें तो आप ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी वर्णों के हैं! साधारण बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति भी समझ लेगा की वस्तुतः
आप ब्राह्मण ही हैं किन्तु आपके अंदर ये सारे गुण भी उपस्थित हैं। किन्तु यदि कर्म के अनुसार आपका वर्ण निर्धारित किया जाएगा तो या तो आप सभी वर्णों के सिद्ध होंगे या फिर आपका कोई वर्ण सिद्ध नहीं होगा । ब्राह्मणों के सामन उत्तम गुण तथा कर्मों वाले भगवान श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर
भी क्षत्रीय ही रहे क्युकी वे जन्म से क्षत्रिय थे तथा क्षत्रिय गुणों से युक्त द्रोणाचार्य, कृपाचार्य एवं अश्वत्थामा आदि शूरवीर ब्राह्मण ही रहे क्युकी वे जन्म से ब्राह्मण थे। इस श्लोक मे गुण का तात्पर्य सत्व, रज, और तम् गुणों से है अर्थात इन तीन गुणों के अनुरूप ही वर्णों की रचना
हुई है इसमे विशुद्ध सत्व गुण का परिणाम “ब्राह्मण” होता है, सत्व और रज के समिश्रण का परिणाम “क्षत्रिय” होता है,शुद्ध रज का परिणाम “वैश्य” होता है तथा रज और तम के समिश्रण का परिणाम “शूद्र” होता है। कर्म से जाति का निर्धारण होता है, यह निःसंदेह सत्य है पर क्या आप १ वर्ष के बालक को
देख कर कह सकते हैं कि वह ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र में क्या बनेगा ? क्योंकि अभी तो उसने तदनुरूप कर्म किया ही नहीं! जहां कर्म से जाति का निर्धारण होने की बात है,वहाँ पिछले जन्म के कर्मों का संकेत है। पिछले जन्म के कर्म इस जन्म के वर्ण को निर्धारित करते हैं और इस जन्म के कर्म
अगले जन्म की योनि या वर्ण का निर्धारण करते हैं। यदि ऐसा न होता, तो ब्राह्मणों के समान जीवन व्यतीत करने वाली माता शबरी को ब्राहमण क्यों नहीं माना गया ? और क्षत्रिय के समान कर्म करने वाले भगवान परशुराम को ब्राह्मण ही क्यों कहा गया ? कर्म का तात्पर्य पूर्व जन्मों मे कीये हुए कर्मों
से है अर्थात विगत जन्मों मे जैसा कर्म कीये उसीके अनुसार भिन्न-भिन्न वर्णों मे जन्म प्राप्त हुआ महर्षि आपस्तम्ब ने धर्मसूत्र में यह स्पष्ट किया हैं -
धर्मचर्य्या जघन्यो वर्णः पूर्वंपूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ ।
अधर्मचर्य्यया पूर्वोवर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ॥
अर्थात धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने वर्ण से उत्तम वर्ण में जन्म लेता है। अधर्माचरण से पूर्व वर्ण अर्थात् उत्तम वर्ण भी निम्न वर्ण में जन्म लेता है । इस जन्म की जाति का निर्धारण पिछले कर्मों से होता है.. इस जन्म में यदि शूद्र धर्माचरण की मर्यादा में रहे, तो उसे अगली योनि में वर्ण
में उन्नति मिलेगी, वह वैश्य बनेगा, अन्यथा नीचे गिर कर म्लेच्छ बन जायेगा, इसी प्रकार यदि क्षत्रिय मर्यादानुसार धर्माचरण करे, तो अगले जन्म में ब्राह्मण बनेगा, और यदि ऐसा नहीं किया, तो अगली योनि में वैश्य या शूद्र या म्लेच्छ और यहां तक कि पशु भी बन सकता है।
छान्दोग्य श्रुति मे भी इसका उद्धरण प्राप्त होता है –
तद्य इह रमणीयचरणाभ्यासो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणाभ्यासो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरनश्वयोनिं वा शूकर योनिं वा चाण्डालयोनिं वा।
अर्थात्, उन में जो अच्छे आचरणवाले होते हैं वे शीघ्र ही उत्तमयोनि को प्राप्त होते हैं । वे ब्राह्मणयोनि, क्षत्रिययोनि अथवा वैश्ययोनि प्राप्त करते हैं तथा जो अशुभ आचरण वाले होते हैं वे अशुभ योनिको प्राप्त होते हैं। वे कुत्ते की योनि, सूकर की योनि अथवा चाण्डालयोनि प्राप्त करते हैं।
उपरोक्त श्रुति में स्पष्ट उल्लेख है पूर्व जन्मों के कर्मानुसार ही अलग अलग योनियों में अथवा वर्ण में जन्म होता है। दूसरा एक तर्क यह भी है की कर्म शास्वत नहीं है अर्थात मैं यदि साधना कर रहा हूँ, तो मैं अभी ब्राह्मण हूँ। किसी म्लेच्छ का संहार करते समय मैं क्षत्रिय बन जाऊँगा, और कृषि
करते समय वैश्य और समाज सेवा करते समय शूद्र बन जाऊँगा.. एक ही दिन में मैं कई बार सभी वर्णों में घूम जाऊँगा तो बताईये कि मेरा वर्ण क्या है ? मैं किस वर्ण की कन्या से विवाह करूंगा ? मैं क्या कहलाऊंगा ? मनुष्य और कुत्ता दोनों रोटी खाएं तो क्या कुत्ते को मनुष्य और मनुष्य को कुत्ता
कहा जा सकता है ? यदि मछली और बतख दोनों जल में तैरें, तो मछली को बतख और बतख को मछली कहा जा सकता है ? पिछले जन्म के कर्म इस जीवन का वर्ण निर्धारित करते हैं…. तथा इस जीवन के कर्म अगले जन्म के वर्ण या योनि तय करते हैं अतएव डंके की चोट पर जन्मना वर्णव्यवस्था सिद्ध हैं।
रट्टू तोता की तरह गीता का केवल एक श्लोक रट कर तर्क करने वाले मूर्खों ने यदि गीता का आद्योपांत सम्यकतया अध्ययन किया होता तों उन्हे पता लग जाता की उन्ही भगवान श्री कृष्ण ने गीता के १८वें अध्याय मे चारों वर्णों के कर्मों का भी विस्तृत वर्णन किया है-
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥
(गीता १८/४२)
इस श्लोक मे भगवान कहते हैं की शौच, क्षांति, क्षमा, आर्जव, अन्तःकरण की सरलता ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता अर्थात शास्त्र के वचनों म
श्रद्धा ये सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है की यदि भगवान को कर्मणा वर्ण व्यवस्था स्वीकृत होती तो भगवान ‘ये सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं’ ऐसा न कह के ये कहते की इन सभी कर्मों को करने वाला कोई भी ब्राह्मण हो सकता है इस प्रकार यहाँ भी डंके की
चोट पर यह तथ्य ख्यापित है की वर्ण व्यवस्था जन्मना ही होती है कर्मणा नहीं ! “स्वभावजम्” इस पद का अर्थ है की जन्मांतर मे कीये हुए कर्मोंके संस्कार, जो वर्तमान जन्म मे अपने कार्यके अभिमुख हो कर व्यक्त हुए हैं उनका नाम स्वभाव हैं।
ऐसा स्वभाव जिन गुणों के उत्पत्ति के कारण हैं वे स्वभावप्रभव गुण हैं। अन्य श्लोक निम्न हैं -
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥
इस प्रकार उपरोक्त दो श्लोकों मे भगवान ने क्षत्रिय, वैश्य के कर्म तथा शूद्र के कर्मों को स्पष्टतः निर्धारित किया है ध्यान देने योग्य बात यह है की इसमे फल चौर्य नहीं है अर्थात ऐसा नहीं है की ब्राह्मण अपने कर्तव्य का पालन करेगा तो उसको उत्कृष्ट फल प्राप्त होगा तथा अन्य वर्णों को
उससे कम फल प्राप्त होगा ऐसा बिल्कुल नहीं है आगे भगवान स्पष्ट कहते हैं की “स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः” अर्थात अपने अपने वर्णाश्रीत कर्म का पालन करके व्यक्ति परम सिद्धि को प्राप्त कर सकता है।
अब आप स्वयं चिंतन करिए की यदि इच्छानुसार कर्म बदलने से वर्ण बदलने की स्वतंत्रता होती तो भगवान ऐसा क्यों कहते ?
वर्ण देहाश्रित है, देह जन्माश्रित है, वर्ण कर्माश्रित नहीं है क्योंकि कर्म देह की अपेक्षा चिरस्थाई नहीं है क्युकी देह के द्वारा व्यक्ति भिन्न-भिन्न कर्मों को कर
पाने मे स्वतंत्र है किन्तु कर्म के द्वारा एक ही समय मे भिन्न भिन्न देह प्राप्त कर पान सर्वथा असंभव है इसीलिए कर्म वर्णाश्रित है, न कि वर्ण कर्माश्रित । कर्म बदलने से यदि वर्ण बदलेगा तो पूजा कराने वाला ब्राह्मण यदि धर्मरक्षा के लिए शस्त्र उठाये तो उसकी क्षत्रिय संज्ञा हो जाती,
फिर उसे अपनी पत्नी से ही ब्राह्मणीगमन का महान पातक लग जाता कर्म वर्ण के ऊपर आश्रित है इसीलिए द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का कर्म उनके वर्ण पर प्रभाव न डाल सका। अब कई लोगों के मन मे शंका उठ सकती है की यदि कोई ब्राह्मण होकर भी निच् कर्मों को करता है फिर भी उसे ब्राह्मण ही कहना तो
पक्षपातपूर्ण है तो उसका समाधान महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य मे किया है की –
तपः श्रुतं च योनिश्चेत्येतद् ब्राह्मणककारणम्।
तप: श्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:।।
अर्थात ब्राह्मण होने के तीन कारण है उपनयनपूर्वक वेदाध्ययन, तप, तथा योनि यहाँ योनि का अर्थ है ब्राह्मण कुल मे जन्म
यदि कोई वेदाध्ययन, तप, संध्यावन्दन, तर्पण, अग्निहोत्र इत्यादि नहीं करता तो ऐसा व्यक्ति केवल योनि से ब्राह्मण है तथा अधम ब्राह्मण की श्रेणी मे आता है जिसकी लोक मे सर्वत्र नींद होती है किन्तु यदि कोई ब्राह्मण होकर ब्राह्मणोंचित शील संस्कार के अनुरूप जीवन व्यतीत करता है तो वह
सर्वत्र पूजनीय और वंदनीय होता है। इस प्रकार ये तथ्य स्वतः सिद्ध है की कर्म वर्णगत व्यक्ति के उत्कर्ष और अपकर्ष मे हेतु होता है उसके वर्णनिर्धारण मे नहीं हाँ वर्तमान जन्म मे उसके द्वारा कीये हुए उत्कृष्ट और निकृष्ट कर्मों का पर्यवसान
आने वाले जन्मों मे उत्कृष्ट और निकृष्ट जन्मों के रूप मे होता है न की इस जन्म मे। महाभारत के उद्योगपर्व मे जब राजा धृतराष्ट्र शोकमग्न होते हैं उस समय महात्मा विदुर जिन्हे धर्मावतार कहा गया है धृतराष्ट्र को दिव्य विदुरनीति का उपदेश करते हैं तथा धृतराष्ट्र उनसे धर्म संबंधी नाना
प्रश्न करते हैं जिसका उत्तर महात्मा विदुर उन्हे देते भी हैं किन्तु जब वे ब्रह्मज्ञान से संबंधित प्रश्न विदुर से पूछते हैं तब विदुर जी ने एक अद्भुत तथ्य ख्यापित किया है की-
शूद्रयोनावहं जातो नातोऽन्यद् वक्तुमुत्सहे ।
कुमारस्य तु या बुद्धिर्वेद तां शाश्वतीमहम् ॥
अर्थात्, मेरा जन्म शूद्रयोनि में हुआ है अतः मैं (ब्रह्मविद्या में अधिकार नहीं होने से ) इसके अतिरिक्त और कोई उपदेश देने का साहस नहीं कर सकता, किन्तु कुमार सनत्सुजात की बुद्धि सनातन है, मैं उन्हें जानता हूँ । ऐसा कह कर वे महर्षि सनत्सुजात का आवहन करते हैं उनके आवाहन से महर्षि
प्रकट हो कर धृतराष्ट्र को ब्राहविद्या का उपदेश करते हैं जिसे “सनत्सुजातीय दर्शन” कहा जाता है जिसपर आद्यजगद्गुरु भगवान शंकराचार्यजी ने भाष्य की रचना भी किया है। इस प्रकार यहाँ भी डंके की चोट पर जन्मना वर्णव्यवस्था सिद्ध है। यदि हम आपको इस प्रकार प्रमाण देते रहे तो कइ सौ पृष्ठ भी
कम पड जाएंगे लोक मे ये प्रसिद्ध है की “विवेकी के लिए तो संकेत ही पर्याप्त होता है” इसलिए हम सभी विवेकी व्यक्तियों से कहेंगे की इन निकृष्ट धर्मद्रोहियों के चपेट मे आ कर अपने अनादी कुल परम्परा गोत्र परंपरा का उच्छेद मत करिए क्युकी ऐसे नीचों का अपना तो कोई अस्तित्व है नहीं ये
इसलिए ये चाहते हैं की आपके अस्तित्व को भी मिटा दिया जाए, आप अपने कुल परंपरा जाती मर्यादा पे गौरवान्वित रहिए तथा आने वाली पीढ़ियों को भी इसके महत्व को बताइए क्युकी ये सनातनधर्मियों की विशेषता है कमजोरी नहीं।
अब दूसरा प्रश्न है –
क्या वर्ण और जाती अलग अलग है ?
उत्तर - आधुनिक सुधारवादियों के द्वारा यह भ्रामक प्रचार किया गया की वर्ण और जाति अलग-अलग हैं तथा ऐसे प्रचारों के चपेट में आकर कई लोग यह कहने लगते हैं की जाति वर्ण से भिन्न है। किंतु यह सत्य नहीं है वर्ण के प्रभेद के रूप में ह
जातियां हैं जैसे कि ब्राह्मणों में तिवारी, उपाध्याय, झा, ओझा, मिश्रा, पाण्डेय, पाठक, शुक्ला, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, आदि अनेक जातियां आती हैं, अब कोई कहे कि भाई मिश्रा जी ब्राह्मण हैं किंतु पाण्डेय जी ब्राह्मण नहीं हैं अब यह मूर्खतापूर्ण प्रलाप कितना तर्क संगत है ?
आप स्वयं विचार करिए ! इसी प्रकार क्षत्रियों में भी 36 जातियां होती हैं जिसमे राठौड, सिसोदिया, गहलोत, भाटी, तोमर, चन्देल, पुण्डीर, चौहान, सोलंकी, परिहार, परमार आदि अन्य जातियां आती हैं अब यदि कोई कहे की नही क्षत्रिय तो अलग होते हैं ये सब तो जातियां है, तो ऐसी बैलबुद्धि का कोई
क्षत्रिय अच्छे से उपचार कर दे तो कोई दोष नही होगा, क्योंकि इन अवयवों अर्थात जातियों को हटा दिया जाए तो क्षत्रिय शब्द का अपना कोई अस्तित्व नहीं ये सारी जातियां मिल कर के ही तो क्षत्रिय कुल का नेतृत्व करती हैं। ठीक इसी प्रकार की स्थिति वैश्य और शूद्र कुल के साथ भी है। अतः आज से आप
यह गांठ बांध लीजिए की वर्ण और जाति भिन्न-भिन्न नहीं है अपितु एक दूसरे के पर्याय हैं। पश्चिमी विचारधारा से ग्रसित नीचों का यह कुचक्र है की हिंदू समाज में यह भ्रम पैदा कर दो की जाति और वर्ण अलग अलग हैं जिससे इनके पूरे परम्परा का ही विनाश हो जाए तथा इनकी गोत्र मर्यादा, जाति परंपरा
कुल परंपरा सब नष्ट हो जाए अतः आप सब इन धर्मद्रोहियों से सावधान रहिए तथा अपने सीमा में ऐसे अनर्गल प्रलापों का खंडन करिए।
अब हमारा तीसरा प्रश्न है –
क्या वर्ण एवं जातियों का प्रभेद समाप्त कर सबका हिन्दू हो जाना ठीक है ?
उत्तर - ये तर्क आधुनिक हिंदुत्ववादियों की देन है। इनका कहना है की जातियों का वर्णो का भेद खत्म करके सबका कल्याण हिंदू मात्र हो जाने में है। और जब आप इनसे यह प्रश्न पूछेंगे कि हिंदू कौन है ? तो इनका झट से उत्तर आएगा की भारत में रहने वाले जितने लोग हैं वे सब हिंदू हि हैं वे यहां तक
कहते हैं कि मुसलमान आदि भी हिंदू ही हैं केवल उपासना पद्धति मे भेद है। अब साधारण बुद्धि संपन्न व्यक्ति भी यह प्रश्न पूछ सकता है की जब भारत में रहने वाले सब हिंदू ही हैं तो जातियों का तथा वर्णों का भेद आप समाप्त क्यों करना चाहते हैं ? क्योंकि आपके अनुसार तो सब हिंदू ही हैं। तब इन
सबके मुंह पर ताले लग जाते हैं । वस्तुस्थिति ये है कि ये निकृष्ट शास्त्रों को नहीं मानते और जो संगठन या विचारधारा शास्त्रों को नहीं मानती है उससे सनातन वैदिक हिंदू धर्म के रक्षा की अपेक्षा रखना मूर्खतापूर्ण ही है। क्युकी सनातन वैदिक धर्म को परिभाषित शास्त्र ही करते हैं तथा जो
विचारधारा, व्यक्ति अथवा संगठन शास्त्र को नहीं मानेगा वह निश्चित ही मनमाने ढंग से धर्म को परिभाषित और क्रियान्वित करने का प्रयत्न करेगा जिससे धर्म तो नष्ट होगा तथा अधर्मियों का उत्कर्ष होगा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमे देखने को विगत कुछ वर्षों से प्राप्त हो रहा है। इससे एक बात तो
स्पष्ट हो जाती है की इन धूर्तों का लक्ष्य हिंदू समाज में डर पैदा करके लंबे समय तक सत्ता में बने रहने का है भारत को सनातन मानबिंदुओं के अनुरूप चलाने का नही । साधारण व्यक्ति भी जनता है की यदि कोई ब्राम्हण होगा तो वह हिंदू होगा ही इसमें कोई इदं-इत्थं नहीं है ठीक इसी प्रकार यदि कोई
क्षत्रिय होगा तो वह हिंदू होगा ही उसे हिंदू होने के लिए अलग से प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ये चारों वर्ण मिल कर के ही सनातनी कहलाते हैं। इसके विपरित जब वर्णों का भेद समाप्त हो जाएगा गोत्र मर्यादा, कुलपरंपरा, रोटी-बेटी के संबंधों क
मर्यादा खत्म हो जाएगी तथा सब वर्णसंकर होकर पतित हो जाएंगे तब वे सब नाम से यदि हिंदू रह भी गए तो भी वे विशुद्ध वैदिक सनातन धर्मी तो कदापि नहीं रहेंगे।
इसलिए वैदिक सनातनधर्मियों को इन निकृष्टों से स्वयं को सुरक्षित रह कर अपने स्वधर्म की रक्षा करते हुए भारत को भारत के रूप में ख्यापित करने का प्रयत्न करना चाहिए इसीसे सबका कल्याण होगा।
अब हमारा अंतिम प्रश्न है की –
क्या हिंदुओं का पतन वर्ण व्यवस्था के कारण हुआ है या हो रहा है ?
उत्तर – ये कुप्रचार भी कुछ तथाकथित सुधारवादियों ने किया है वस्तुस्थिति तो ये है की जबतक भारतवर्ष में वर्णाश्रम व्यवस्था का सिद्धांत क्रियान्वित था तब तक हम संपूर्ण विश्व में अपने
विजय पताका को फहराते रहे तब तक हम शिक्षा, रक्षा, अर्थ, सेवा, आवास, स्वास्थ्य आदि के क्षेत्र मे अद्वितीय रहे तथा विश्व गुरु के पद पर सुशोभित थे । जिस रामराज्य की प्रशंसा आधुनिक भौतिकवादी और हिंदुत्ववादी करते हैं उस रामराज्य की आधारशिला भी वेदसम्मत, शास्त्रसम्मत हमारी वर्णाश्रम
व्यवस्था ही थी । इस वर्णाश्रम व्यवस्था के कारण सबकी जीविका जन्म से सुरक्षित रहती थी तथा जीवन दुर्व्यसन मुक्त होता था सब परस्पर एक दूसरे के पोषक होते थे कोई किसी का शोसक नहीं होता था, किंतु आज की स्थिति ये है की सबकी जविका जन्म से अरक्षित तथा जीवन दुर्व्यसन युक्त हो गया है आज सब
एक दूसरे के शोसक हो गए हैं कोई किसी का पोषक नहीं रहा, मातृशक्ति का शील भी आज सुरक्षित नहीं है ओर रहेगा भी कैसे ? हम उस पश्चिमवादी व्यवस्था को अपना रहे हैं जो मातृशक्ति को वासना पूरा करने का यंत्र समझता है, आज भी यदि किसी विशुद्ध सनातन धर्मी के समक्ष हजारों विश्वसुंदरियों को खडा
कर दिया जाए तो वह सर्वप्रथम उनका गोत्र देखेगा कुल देखेगा प्रवर देखेगा तब आगे कोई कदम उठाएगा इस प्रकार जबतक ये व्यवस्था क्रियान्वित थी तबतक सभी मातृशक्तियों का शील सुरक्षित था, किन्तु आज की स्थिति आप स्वयं देखिए की बलात्कार ओर दुष्कर्म जैसे घृणित कुकर्म हर मिनट हो रहे हैं जिसके
बारे मे चिंतन करने मात्र से हृदय क्रोध और विषाद से भर जाता है । जबसे हमने इस सिद्धांत के पालन करने में शिथिलता का परिचय देना प्रारंभ किया तबसे हमारे भारत का विखंडन होना प्रारंभ हो गया पिछले कई शताब्दियों में जिन आक्रांताओं के आक्रमण सफल हुए उसमे मुख्य कारण इसी वर्णाश्रम धर्म का
पतन था अन्य जितने भी कारण दिख पड़ते हैं वे सब आवांतर कारण हो सकते हैं किंतु मुख्य कारण तो यही था । तथा हमे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है की आगे यदि भारत का उत्कर्ष किसी सिद्धांत का पालन करने से हो सकता है तो वह केवल और केवल वर्णाश्रम सिद्धांत के पालन से ही होगा यदि हमने
प्रमाद का परिचय दिया तो पश्चिमी देशों की तरह भारत आर्थिक रूप से समृद्ध हो भी गया तो सामाजिक, नैतिक तथा व्यवहारिक धरातल पर पतन होना निश्चित ही है इसे कोई रोक नहीं सकता है क्युकी वैदिक महर्षीयों के द्वारा चिर परीक्षित प्रयुक्त और विनियुक्त सिद्धांत को ताख पर रख कर यदि कोई विकास
करना चाहे तो उस विकास के गर्भ से विनाश और विस्फोट ही निकलेगा इस लिए ये सूक्ति प्रासंगिक है की "नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय"
इस प्रकार इस विषय पर यदि विस्तारपूर्वक लिखा जाए तो थ्रेड मे कइ सौ ट्विट्स होने लग जाएंगे इसलिए हमने विषय को बहोत सूक्ष्म मे ही लिखने का प्रयत्न किया है
आशा है आपकी शंकाएं दूर हो जाएंगी, भगवान चंद्रमौलीश्वर आप सब पर अपनी कृपा दृष्टि बनाएं ऐसी हमारी प्रार्थना निरंतर उनके श्रीचरणों मे रहेगी….नारायण…..
हर हर महादेव ।।
जय जगन्नाथ ।।