Authors तहक्षी™ Vedvamika

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Is Danish astronomer ole Roemer really first person who measure the SPEED OF LIGHT? (1644-1710)

--Who describes first velocity of light first?
RIGVED ...
Let's see how ...?
प्रकाश की गति (Velocity of Light)

सूर्य-विषयक ऋग्वेद में एक मंत्र 'तरणिर्विश्वदर्शत:


ऋग्० १.५०.४

च स्मर्यते - योजनां सहस्रे द्वे द्वे शते द्वेच योजन । एकन निमिषार्धेन क्रमांकमाण नमोस्तु ते ..

ऋग्वेद 1.500 मंत्र की निरूपण
अर्थात् हे सूर्यतुम्हारी गति आधे निमेष ( पलक मारना) में दो हजार दो सौ दो (२२०२) योजन है। सूर्य की किरणों कि गति कितनी तीव्र है, निमेष क्या है


काल ज्ञान के लिए महाभारत का निम्नलिखित श्लोक बहुत महत्त्वपूर्ण है ।

काष्ठा निमेषा दश पञ्च चैव,

त्रिंशत् तु काष्ठा गणयेत् कलां ताम् ।

त्रिंशत् कलाश्चापि भवेन्मुहूर्तो

भागः कलाया दशमश्च यः स्यात् ।

त्रिंशन्मुहूर्तं तु भवेदहश्च ।

(महा शान्तिपर्व अध्याय २३१ श्लोक १२ और १३)


Now see what his theory says
It was the Danish astronomer, Olaus Roemer, who, in 1676, first successfully measured the speed of light. His method was based on observations of the eclipses of the moons of Jupiter

Roemer noted that the observed time interval

between successive eclipses of a given moon was about seven minutes greater when the observations were carried out when the earth in its orbit was moving away from Jupiter than when it was moving toward Jupiter. He reasoned that, when the earth was moving away from Jupiter, the
कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष क्या है?
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depth of the science based on veda ...how?


पूर्णिमान्त मास मानने पर मास का प्रारम्भ (पूर्वपक्ष) कृष्णपक्ष होता है और उत्तरपक्ष (उत्तरार्ध) शुक्लपक्ष होता है। परन्तु तैत्तिरीय ब्राह्मण और निरुक्त में मास का प्रारम्भ शुक्ल पक्ष से और समाप्ति (उत्तरार्ध) कृष्णपक्ष से बताया गया है। इस प्रकार का मास


अमान्त मास होता है। यह भी कहा गया है है कि पूर्वपक्ष अर्थात् शुक्लपक्ष देवों से संबद्ध है और उत्तरार्ध कृष्णपक्ष असुरों से ,निरुक्त में शुक्ल पक्ष को पूर्वपक्ष और कृष्णपक्ष को उत्तरपक्ष (उत्तरार्ध) बताया है ।

आधुनिक पंचांग एक प्रकार से दोनों पद्धतियों का समन्वय हैं । इनमें


मास पूर्णिमान्त होते हैं अर्थात् मास का प्रारम्भ कृष्णपक्ष से होता है और समाप्ति शुक्ल पक्ष से, अतः मास की समाप्ति पूर्णिमा को होती है । परन्तु वर्ष का प्रारम्भ शुक्लपक्ष से होता है, अर्थात् चैत्र शुक्लपक्ष से वर्ष प्रारम्भ होता है और आगामी चैत्र कृष्णपक्ष की अमावस्या को वर्ष


पूरा होता है। इस प्रकार मास पूर्णिमान्त हैं और वर्ष अमान्त हैं। अतः आधुनिक पंचांग दोनों पद्धतियों का समन्वय समझना चाहिए ।

इसी प्रकार दोनों अयन अर्थात् उत्तरायण और दक्षिणायन का भी भेद किया गया है । उत्तरायण का संबन्ध देवों से है और दक्षिणायन का पितरों से । शतपथ ब्राह्मण में इसी
“Why arghya (water offering) to the sun?

It is a common belief that by giving arghya to the sun one’s sins are washed out. It is written in the Skand-Parana that to take food without arghya to tha “sun is like committing sins

अथ संध्याया यदपः प्रभुक्ते ता विपुषो वज्रीयुत्वा


असुरान पाध्नान्ति ।।

The water used in prayer converts into vajra (hard stones) and destroys demons. The destruction of demons through sun-rays is figurative language. The demons for mankind are typhoid, tuberculosis, pneumonia etc. and their bacterias in water are destroyed by

the divine strength of sun-rays. The germs of anthrax, which survive years of drying, are killed by sun-rays in one and a half hours. Likewise, the harmful germs of cholera, pneumonia, small pox, T.B., which survive in boiling water are easily killed by the ultraviolet rays of

the sun, reactivated by water.”

In suryarghya, the devotees stand, in the morning facing the sun, take handful “attentively, you will see the seven coloured spectrum of light.
It is considered proper to offer water to the sun from a lota with convex edge. If the edge of the

pot, from which you are offering water to the sun, is concave, you will see the sun in a bigger form
In such a situation our eyes will not be in a position to bear the sun-rays. It would be better if the lota is of copper or brass, instead of a bright metal such as aluminium or
हर शुभ कार्य से पहले क्यों बनाया जाता है स्वास्तिक, जानिए इसका कारण और रहस्य?

स्वस्तिक अत्यन्त प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल और शुभता का प्रतीक माना जाता रहा है। हिंदू धर्म में किसी भी शुभ कार्य से पहले स्वास्तिक का चिन्ह अवश्य बनाया जाता है। स्वास्तिक शब्द सु+अस+क


शब्दों से मिलकर बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा या शुभ, 'अस' का अर्थ 'सत्ता' या 'अस्तित्व' और 'क' का अर्थ 'कर्त्ता' या करने वाले से है। इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना निहित है। 'स्वस्तिक'

अर्थात् 'कुशलक्षेम या कल्याण का प्रतीक ही स्वस्तिक है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम

स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'स्वस्तिक' कहते हैं। यही शुभ चिह्न है, जो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है।स्वस्तिक को ऋग्वेद की ऋचा में सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है।

सिद्धान्तसार नामक ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष
Śatāghnī, शताघनी क्या है?

As mentioned in Rāmāyaṇa's Sundara Kāṇḍa, refers to a bombarding instrument or a launchable missile.

It is one of the various weapons used by Rāvaṇa's army during the battle against shri Rāmā and the vanara armies of Sugrīva.


This deadly weapon is mentioned as a catapult in Dhanurveda and in Brahmāṇḍa Purāṇa as a cannon, used during the war between daityas and Goddess Lalita Parameśvari.

रामायण के सुंदर कांड उल्लेखानुसार, शताघनी, एक बमबारी साधन या एक प्रक्षेपण (लॉन्च) करने योग्य अस्त्र (मिसाइल) के रूप में संदर्भित होता है।

यह भगवान राम, और सुग्रीव की वानर सेना के विरुद्ध, युद्ध के दौरान, रावण की सेना द्वारा उपयोग किए गए विभिन्न हथियारों में से एक है।

इस घातक हथियार का उल्लेख धनुर्वेद में एक नोदक के रूप में, और ब्राह्म पुराण में एक तोप (कैनन) के रूप में किया गया है, जिसका उपयोग दैत्यों और देवी ललिता परमेश्वरी के बीच युद्ध के दौरान किया गया था।
धनुर्वेद विद्या क्या है?

अग्निपुराण में धनुर्वेद के पांच अंग

यन्त्रमुक्त, पाणिमुक्त, मुक्तसंधारित, अमुक्त और बाहुयुद्ध - पाँच प्रकार का धनुर्वेद होता है। शस्त्र और अस्त्र ये दो भेद कहे हैं। शस्त्रास्त्रों के भी ऋजु और मायायुक्त दो भेद होते हैं।


तरकस से बाण को निकालना आदान कहलाता है। बाण को धनुष की प्रत्यञ्चा पर चढ़ाना सन्धान, लक्ष्य पर बाण को फेंकना मोक्षण, अल्पबलवाले लक्ष्य पर छोड़े गये अस्त्र को वापस लौटाना विनिवर्तन, विभिन्न पैंतरों में खड़े होकर धनुष पकड़ना, डोरी को खेंचना और बाण छोड़ना स्थान कहलाता है। तीन या चार

अङ्गुलियों से धनुष को पकड़ना मुष्टि, अंगूठा तर्जनी या मध्यमा अंगुली से डोरी को खेंचना प्रयोग, स्वतः या दूसरे से प्राप्त होनेवाले डोरी के आघात को दस्ताना पहनकर निवारण करना, कवच पहनकर दूसरों द्वारा छोड़े गये बाणों को रोकना अथवा सामने से आते हुए बाण को अपने बाण द्वारा काट देना

प्रायश्चित्त कहलाता है। इसी भाँति घूमते हुए वाहन से छोड़े गये बाण का स्वयं भी रथारूढ़ होकर वेधना मण्डल और शब्द के ऊपर बाण छोड़ना या एकसाथ अनेक लक्ष्यों पर शर-सन्धान करना ये सब रहस्य के अन्तर्गत आते हैं।

गुणागुणः- वृद्मुष्टनी, वज्रुमुष्टी, सिंहकर्णी, मत्सरी और काकर्णी—ये पांच मुष्टित है

पताका- जहाँ पर तर्जनी सीधी रहे और अंगूठे के मूल में मुड़े, उसे पताका कहते हैं। इसे बन्दूक की गोली चलाने में प्रयुक किया जाता है

सिंहकर्णमुष्टि में यदि तर्जनी फैली हुई हो तो उसे पताकामुष्टि
WHAT IS TATV OF ENTIRE MANTRAS ?

मन्त्र के अन्य तत्त्व -

1. ऋषि- शिवमुख से जिस ऋषि ने मन्त्र को सुनकर सिद्ध किया वही उसका प्रणेता है। उस मन्त्र का आदिगुरु उस ऋषि को मानकर जप करने से फल प्राप्त होगा। अतः विनियोग में ऋषि का उल्लेख जरुरी है।


2. देवता- मन्त्र की शक्ति के अधिष्ठाता देव का ज्ञान होना जरुरी है।

3. छन्दः संसार की उत्पत्ति हेतु ब्रह्म की शक्ति का छन्दोमय आवरण माना है अतः मन्त्र की शक्ति का विभाग, प्रकार जानने हेतु छन्द का ज्ञान विनियोग हेतु जरूरी है।

4. बीज मन्त्र जो बीज है उसी अनुरूप मन्त्र का फल व दिशा होती है अतः इसका स्मरण अवश्य किया जाना चाहियें। बीज मन्त्र का गर्भ होता है।

5. शक्ति- जिसकी सहायता से बीज मन्त्र बन जाता है वह शक्ति कहलाती है। विनियोग ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति एवं कीलक का उल्लेख करते हुये अपनी कामना का

उल्लेख करके (सकाम अथवा निष्काम) विनियोग करने से मन्त्र के फल की दिशा एवं मार्ग तथा प्रतिफल का स्वरूप निर्धारित होता है।

6. ऋषिन्यास- विनियोग के बाद मन्त्र का ऋष्यदिन्यस करके ऋषि, देवता, छन्द, बीज आदि आपके अंग बन जाते हैं और आपके शरीर को मन्त्र-सदृश बना देते हैं।