Narayanagl Authors Vibhu Vashisth

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दधीचि ऋषि को मनाही थी कि वह अश्विनी कुमारों को किसी भी अवस्था में ब्रह्मविद्या का उपदेश नहीं दें। ये आदेश देवराज इन्द्र का था।वह नहीं चाहते थे कि उनके सिंहासन को प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से कोई भी खतरा हो।मगर जब अश्विनी कुमारों ने सहृदय प्रार्थना की तो महर्षि सहर्ष मान गए।


और उन्होनें ब्रह्मविद्या का ज्ञान अश्विनि कुमारों को दे दिया। गुप्तचरों के माध्यम से जब खबर इन्द्रदेव तक पहुंची तो वे क्रोध में खड़ग ले कर गए और महर्षि दधीचि का सर धड़ से अलग कर दिया।मगर अश्विनी कुमार भी कहां चुप बैठने वाले थे।उन्होने तुरंत एक अश्व का सिर महर्षि के धड़ पे...


...प्रत्यारोपित कर उन्हें जीवित रख लिया।उस दिन के पश्चात महर्षि दधीचि अश्वशिरा भी कहलाए जाने लगे।अब आगे सुनिये की किस प्रकार महर्षि दधीचि का सर काटने वाले इन्द्र कैसे अपनी रक्षा हेतु उनके आगे गिड़गिड़ाए ।

एक बार देवराज इन्द्र अपनी सभा में बैठे थे, तो उन्हे खुद पर अभिमान हो आया।


वे सोचने लगे कि हम तीनों लोकों के स्वामी हैं। ब्राह्मण हमें यज्ञ में आहुति देते हैं और हमारी उपासना करते हैं। फिर हम सामान्य ब्राह्मण बृहस्पति से क्यों डरते हैं ?उनके आने पर क्यों खड़े हो जाते हैं?वे तो हमारी जीविका से पलते हैं। देवर्षि बृहस्पति देवताओं के गुरु थे।

अभिमान के कारण ऋषि बृहस्पति के पधारने पर न तो इन्द्र ही खड़े हुए और न ही अन्य देवों को खड़े होने दिया।देवगुरु बृहस्पति इन्द्र का ये कठोर दुर्व्यवहार देख कर चुप चाप वहां से लौट गए।कुछ देर पश्चात जब देवराज का मद उतरा तो उन्हे अपनी गलती का एहसास हुआ।
🌺कैसे बने गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन और क्यों दो भागों में फटी होती है नागों की जिह्वा🌺

महर्षि कश्यप की तेरह पत्नियां थीं।लेकिन विनता व कद्रु नामक अपनी दो पत्नियों से उन्हे विशेष लगाव था।एक दिन महर्षि आनन्दभाव में बैठे थे कि तभी वे दोनों उनके समीप आकर उनके पैर दबाने लगी।


प्रसन्न होकर महर्षि कश्यप बोले,"मुझे तुम दोनों से विशेष लगाव है, इसलिए यदि तुम्हारी कोई विशेष इच्छा हो तो मुझे बताओ। मैं उसे अवश्य पूरा करूंगा ।"

कद्रू बोली,"स्वामी! मेरी इच्छा है कि मैं हज़ार पुत्रों की मां बनूंगी।"
विनता बोली,"स्वामी! मुझे केवल एक पुत्र की मां बनना है जो इतना बलवान हो की कद्रू के हज़ार पुत्रों पर भारी पड़े।"
महर्षि बोले,"शीघ्र ही मैं यज्ञ करूंगा और यज्ञ के उपरांत तुम दोनो की इच्छाएं अवश्य पूर्ण होंगी"।


महर्षि ने यज्ञ किया,विनता व कद्रू को आशीर्वाद देकर तपस्या करने चले गए। कुछ काल पश्चात कद्रू ने हज़ार अंडों से काले सर्पों को जन्म दिया व विनता ने एक अंडे से तेजस्वी बालक को जन्म दिया जिसका नाम गरूड़ रखा।जैसे जैसे समय बीता गरुड़ बलवान होता गया और कद्रू के पुत्रों पर भारी पड़ने लगा


परिणामस्वरूप दिन प्रतिदिन कद्रू व विनता के सम्बंधों में कटुता बढ़ती गयी।एकदिन जब दोनो भ्रमण कर रहीं थी तब कद्रू ने दूर खड़े सफेद घोड़े को देख कर कहा,"बता सकती हो विनता!दूर खड़ा वो घोड़ा किस रंग का है?"
विनता बोली,"सफेद रंग का"।
तो कद्रू बोली,"शर्त लगाती हो? इसकी पूँछ तो काली है"।
हिमालय पर्वत की एक बड़ी पवित्र गुफा थी।उस गुफा के निकट ही गंगा जी बहती थी।एक बार देवर्षि नारद विचरण करते हुए वहां आ पहुंचे।वह परम पवित्र गुफा नारद जी को अत्यंत सुहावनी लगी।वहां का मनोरम प्राकृतिक दृश्य,पर्वत,नदी और वन देख उनके हृदय में श्रीहरि विष्णु की भक्ति अत्यंत बलवती हो उठी।


और देवर्षि नारद वहीं बैठकर तपस्या में लीन हो गए।इन्द्र नारद की तपस्या से घबरा गए।उन्हें हमेशा की तरह अपना सिंहासन व स्वर्ग खोने का डर सताने लगा।इसलिए इन्द्र ने नारद की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव को उनके पास भेज दिया।वहां पहुंच कामदेव ने अपनी माया से वसंतऋतु को उत्पन्न कर दिया।


पेड़ और पौधों पर रंग बिरंगे फूल खिल गए और कोयलें कूकने लगी,पक्षी चहकने लगे।शीतल,मंद,सुगंधित और सुहावनी हवा चलने लगी।रंभा आदि अप्सराएं नाचने लगीं ।किन्तु कामदेव की किसी भी माया का नारद पे कोई प्रभाव नहीं पड़ा।तब कामदेव को डर सताने लगा कि कहीं नारद क्रोध में आकर मुझे श्राप न देदें।

जैसे ही नारद ने अपनी आंखें खोली, उसी क्षण कामदेव ने उनसे क्षमा मांगी।नारद मुनि को तनिक भी क्रोध नहीं आया और उन्होने शीघ्र ही कामदेव को क्षमा कर दिया।कामदेव प्रसन्न होकर वहां से चले गए।कामदेव के चले जाने पर देवर्षि के मन में अहंकार आ गया कि मैने कामदेव को हरा दिया।

नारद फिर कैलाश जा पहुंचे और शिवजी को अपनी विजयगाथा सुनाई।शिव समझ गए कि नारद अहंकारी हो गए हैं और अगर ये बात विष्णु जी जान गए तो नारद के लिए अच्छा नहीं होगा।ये सोचकर शिवजी ने नारद को भगवन विष्णु को ये बात बताने के लीए मना किया। परंतु नारद जी को ये बात उचित नहीं लगी।
शमशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायी और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में अपने तीन वर्ष के बालक को रख के स्वयं चिता पे बैठ कर सती हो गयी ।इस प्रकार ऋषी दधीचि और उनकी पत्नी की मुक्ति हो गयी।


परन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़पने लगा। जब कुछ नहीं मिला तो वो कोटर में पड़े पीपल के गोदों (फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के फलों और पत्तों को खाकर बालक का जीवन किसी प्रकार सुरक्षित रहा।

एक दिन देवर्षि नारद वहां से गुजर रहे थे ।नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देख कर उसका परिचय मांगा -
नारद बोले - बालक तुम कौन हो?
बालक - यही तो मैं भी जानना चहता हूँ ।
नारद - तुम्हारे जनक कौन हैं?
बालक - यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ ।

तब नारद ने आँखें बन्द कर ध्यान लगाया ।


तत्पश्चात आश्चर्यचकित हो कर बालक को बताया कि 'हे बालक! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो । तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्रास्त्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी।तुम्हारे पिता की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी'।

बालक - मेरे पिता की अकाल मृत्यु का क्या कारण था?
नारद - तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।
बालक - मेरे उपर आयी विपत्ति का कारण क्या था?
नारद - शनिदेव की महादशा।
इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर बड़े हुए उस बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।
महाभारत की कहानी कौन नहीं जानता।लेकिन क्या आपको पता है कि महाभारत के ज्यादातर पात्र किसी न किसी श्राप में फंसे थे।अगर ये श्राप न होते तो कदाचित महाभारत की कहानी कुछ और होती।हिन्दु पौराणिक ग्रंथों में विभिन्न श्रापों का वर्णन मिलता है व हर श्राप के पीछे कोई कहानी अवश्य होती है।


आइए आज जानते हैं महाभारत कथा में वर्णित कुछ श्रापों के बारे में।

1) राजा पाण्डु को ऋषि किन्दम का श्राप

एकबार महाराज पाण्डु शिकार खेलने वन गए।झाडियों के पीछे कुछ हिल रहा था। मृग है सोचकर राजा ने बाण चलाया जो जाकर ऋषि किन्दम और उनकी पत्नी को लगा।वे दोनो रति-क्रीड़ा में लिप्त थे।

जब राजा ने उन्हें देखा तो बहुत दुखी हुए कि ये मुझसे क्या पाप हो गया।बहुत क्षमा याचना के बाद भी किन्दम ऋषि ने पाण्डु को श्राप दे दिया कि जब भी वो किसी स्त्री को काम भावना से स्पर्श करेंगे उसी क्षण उनकी मृत्यु हो जाएगी।पश्चाताप करने, वे सिंहासन पे अन्धे राजा धृतराष्ट्र को बैठाकर...


..स्वयं अपनी रानियों कुंती व माद्री के साथ वन चले गए।पांडवों का जन्म भी कुंती को ऋषि दुर्वासा द्वारा दिए गए मंत्र से हुआ था जिसमे किसी भी देव का स्मरण कर उस देव से कुंती,पुत्र प्राप्त कर सकती थी।एक बार माद्री पे मोहित हो जब पांडु ने उसे स्पर्श किया,उसी क्षण पांडु की मृत्यु होगयी।


2) उर्वशी का अर्जुन को श्राप

महाभारत युद्ध से पहले जब अर्जुन दिव्यास्त्र प्राप्त करने स्वर्ग गए तो वहां उर्वशी नाम की अप्सरा उन पर मोहित हो गयी। अर्जुन ने जब उन्हें अपनी माता के समान बताया तो यह सुनकर उर्वशी क्रोधित हो गयी और अर्जुन को श्राप दे डाला कि तुम नपुंसक की भांति...
एक बार भगवान कृष्ण की पत्नी महारानी सत्यभामा को अपनी सुन्दरता का अभिमान हो चला।दरबार में सिंहासन पर बैठे महारानी सत्यभामा ने श्री कृष्ण से अनायास ही पूछ लिया,"स्वामी!आपने त्रेता युग में भगवान राम के रूप में अवतार लिया था तथा सीता आपकी पत्नी थीं।क्या वह मुझसे भी ज्यादा सुन्दर थी?"


श्री कृष्ण सत्यभामा के प्रश्न का उत्तर देते कि उससे पहले ही गरुड़ बोल पड़े,"प्रभु!क्या मुझसे भी ज्यादा तीव्र गति से कोई इस सम्पूर्ण जग में उड़ सकता है।"
ये सुन सुदर्शन से भी नहीं रहा गया और वह भी बोल पड़ा,"भगवन!मैनें बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है।


क्या संसार में मुझसे भी बड़ा कोई शक्तिशाली है।" तीनों की ये बातें सुन श्री कृष्ण मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे और जान रहे थे कि इन सबमें अहंकार आ गया है जिसे नष्ट करना अति आवश्यक है।तब श्री कृष्ण ने उन तीनो से कहा,"मेरा एक परम भक्त है, हनुमान।तुम तीनों के प्रश्नों के उत्तर वही...


...भलीभांति दे पाएगा। हे गरुड़! तुम तो बड़ी तीव्र गति से उड़ते हो।तुम जाओ और हनुमान को ये कहकर बुला लाओ कि भगवान राम , माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। प्रभु राम और माता सीता का नाम सुनकर वे दौड़े-दौड़े चले आएंगे।" गरुड़ भगवान की आज्ञा लेकर हनुमानजी को बुलाने उड़ चले।

इधर श्री कृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि देवी आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं और स्वयं द्वारकाधीश ने श्री राम का रूप धारण कर लिया।फिर श्री कृष्ण ने सुदर्शन को आज्ञा देते हुए कहा कि तुम महल के प्रवेशद्वार पर पहरा दो।ज्ञात रहे कि मेरी आज्ञा के बिना कोई भी महल में प्रवेश न करने पाए ।
🌺भीमबेटका शैलाश्रय🌺

भीमबेटका (भीमबैठका) भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त के रायसेन जिले में स्थित एक पुरापाषाणिक आवासीय पुरास्थल है। यह आदि-मानव द्वारा बनाये गए शैलचित्रों और शैलाश्रयों के लिए प्रसिद्ध है। इन चित्रों को पुरापाषाण काल से मध्यपाषाण काल के समय का माना जाता है।


ये चित्र भारतीय उपमहाद्वीप में मानव जीवन के प्राचीनतम चिह्न हैं। यह स्थल मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से ४५ किमी दक्षिणपूर्व में स्थित है। इनकी खोज वर्ष १९५७-१९५८ में डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर द्वारा की गई थी


युनेस्को विश्व धरोहर स्थल भीमबेटका शैलाश्र भीमबेटका क्षेत्र को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, भोपाल मंडल ने अगस्त १९९० में राष्ट्रीय महत्त्व का स्थल घोषित किया। इसके बाद जुलाई २००३ में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया।


यहाँ पर अन्य पुरावशेष भी मिले हैं जिनमें प्राचीन किले की दीवार,लघुस्तूप, पाषाण निर्मित भवन,शुंग-गुप्त कालीन अभिलेख,शंख अभिलेख व परमार कालीन मंदिर के अवशेष सम्मिलित हैं।

ऐसा माना जाता है कि यह स्थान महाभारत के चरित्र भीम से संबन्धित है एवं इसी से इसका नाम भीमबैठका (भीमबेटका)पड़ा।


ये गुफाएँ मध्यभारत के पठार के दक्षिणी किनारे पर स्थित विन्ध्याचल की पहाड़ियों के नीचे हैं।इसके दक्षिण में सतपुड़ा की पहाड़ियाँ आरम्भ होतीहैं।यहाँ600शैलाश्रय हैं जिनमें275 शैलाश्रय चित्रों द्वारा सज्जित हैं।पूर्व पाषाणकाल से मध्य ऐतिहासिक काल तक यह स्थान मानव गतिविधि का केंद्र था।
🌺महाकाल मंदिर ,दार्जिलिंग एक अनोखा मंदिर है, यहां एक साथ विराजते हैं भगवान शिव और गौतम बुद्ध🌺

दार्जिलिंग में वेधशाला पहाड़ी के ऊपर प्राकृतिक प्राचीन शिवलिंग है। इस स्थान का पता तब लगा जब यहां पर लामा दोरजे रिनजिंग 1765 में दोर्जे-लिंग मठ बनवा रहे थे।


इसके बाद यहां के महत्व को देखते हुए लामा द्वारा 1782 में मंदिर का निर्माण कराया गया था।

भारत में मंदिरों की अनगिनत श्रृंखलाएं हैं। जो अपने रहस्‍यों या फिर अद्भुत इतिहास के चलते पूरे विश्‍व में जाने जाते हैं।


इन मंदिरों में कभी पंरपराओं के जरिए मानव सभ्‍यता को संभालने के संदेश मिलते हैं तो कभी अनेकता में एकता का सूत्र देखने और सुनने को मिलता है। ऐसा ही मंदिर है दार्जीलिंग की वादियों में। जहां दो धर्म एक साथ पूजे जाते हैं। वह भी अलग-अलग स्‍थानों की बजाए एक ही स्‍थान पर।