पूर्वांचल के महान क्रान्तिवीर शम्भुधन फूंगलो

भारत में सब ओर स्वतन्त्रता के लिए प्राण देने वाले वीर हुए हैं। ग्राम लंकर (उत्तर कछार, असम) में शम्भुधन फूंगलो का जन्म फागुन पूर्णिमा, 1850 ई0 में हुआ। डिमासा जाति की कासादीं इनकी माता तथा देप्रेन्दाओ फूंगलो पिता थे।

शम्भुधन के पिता काम की तलाश में घूमते रहते थे। अन्ततः वे माहुर के पास सेमदिकर गाँव में बस गये। यहीं शम्भुधन का विवाह नासादी से हुआ।

शम्भु बचपन से ही शिवभक्त थे। एक बार वह दियूंग नदी के किनारे कई दिन तक ध्यानस्थ रहे। लोगों के शोर मचाने पर उन्होंने आँखें खोलीं और कहा
कि मैं भगवान शिव के दर्शन करके ही लौटूँगा। इसके बाद तो दूर-दूर से लोग उनसे मिलने आने लगे। वह उनकी समस्या सुनते और उन्हें जड़ी-बूटियों की दवा भी देते। उन दिनों पूर्वांचल में अंग्रेज अपनी जड़ें जमा रहे थे। शम्भुधन को इनसे बहुत घृणा थी। वह लोगों को दवा देने के साथ-साथ देश और धर्म
पर आ रहे संकट से भी सावधान करते रहते थे। धीरे-धीरे उनके विचारों से प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ने लगी।

एक समय डिमासा काछारी एक सबल राज्य था। इसकी राजधानी डिमापुर थी। पहले अहोम राजाओं ने और फिर अंग्रेजों ने 1832 ई0 में इसे नष्ट कर दिया। उस समय तुलाराम सेनापति राजा थे।
वे अंग्रेजों के प्रबल विरोधी थे। 1854 ई0 में उनका देहान्त हो गया। अब अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में फैले विद्रोह को दबाने के लिए राज्य को विभाजित कर दिया।

शम्भुधन ने इससे नाराज होकर एक क्रान्तिकारी दल बनाया और उसमें उत्साही युवाओं को भर्ती किया।
माइबांग के रणचंडी देवी मंदिर में इन्हें शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण दिया जाता था। इस प्रकार प्रशिक्षित युवकों को उन्होंने उत्तर काछार जिले में सब ओर नियुक्त किया। इनकी गतिविधियों से अंग्रेजों की नाक में दम हो गया।

उस समय वहाँ अंग्रेज मेजर बोयाड नियुक्त था। वह बहुत क्रूर था।
वह एक बार शम्भुधन को पकड़ने माइबांग गया; पर वहाँ युवकों की तैयारी देखकर डर गया। अब उसने जनवरी 1882 में पूरी तैयारी कर माइबांग शिविर पर हमला बोला; पर इधर क्रान्तिकारी भी तैयार थे। मेजर बोयाड और सैकड़ों सैनिक मारे गये। अब लोग शम्भु को ‘कमाण्डर’ और ‘वीर शम्भुधन’ कहने लगे।
शम्भुधन अब अंग्रेजों के शिविर एवं कार्यालयों पर हमले कर उन्हें नष्ट करने लगे। उनके आतंक से वे भागने लगे। उत्तर काछार जिले की मुक्ति के बाद उन्होंने दक्षिण काछार पर ध्यान लगाया और दारमिखाल ग्राम में शस्त्र निर्माण भी प्रारम्भ किया।
कुछ समय बाद उन्होंने भुवन पहाड़ पर अपना मुख्यालय बनाया। यहाँ एक प्रसिद्ध गुफा और शिव मन्दिर भी है। उनकी पत्नी भी आन्दोलन में सहयोग करना चाहती थी। अतः वह इसके निकट ग्राम इग्रालिंग में रहने लगी। शम्भुधन कभी-कभी वहाँ भी जाने लगे।
इधर अंग्रेज उनके पीछे लगे थे। 12 फरवरी, 1883 को वह अपने घर में भोजन कर रहे थे, तो सैकड़ों अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें घेर लिया। उस समय शम्भुधन निःशस्त्र थे। अतः वह जंगल की ओर भागे; पर एक सैनिक द्वारा फेंकी गयी खुखरी से उनका पाँव बुरी तरह घायल हो गया।
अत्यधिक रक्तस्राव के कारण वह गिर पड़े। उनके गिरते ही सैनिकों ने घेर कर उनका अन्त कर दिया। इस प्रकार केवल 33 वर्ष की छोटी आयु में वीर शम्भुधन ने मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।
@Dharm_itihasa_ @p4prapti
@Itishree001 @ruchikahooda

More from दीपक शर्मा(सनातन सर्व श्रेष्ठ)

आयुर्वेद जानकारी

*तिल का तेल ... पृथ्वी का अमृत*

यदि इस पृथ्वी पर उपलब्ध सर्वोत्तम खाद्य पदार्थों की बात की जाए तो तिल के तेल का नाम अवश्य आएगा और यही सर्वोत्तम पदार्थ बाजार में उपलब्ध नहीं है. और ना ही आने वाली पीढ़ियों को इसके गुण पता हैं.


🔹 क्योंकि नई पीढ़ी तो टी वी के इश्तिहार देख कर ही सारा सामान ख़रीदती है.
और तिल के तेल का प्रचार कंपनियाँ इसलिए नहीं करती क्योंकि इसके गुण जान लेने के बाद आप उन द्वारा बेचा जाने वाला तरल चिकना पदार्थ जिसे वह तेल कहते हैं लेना बंद कर देंगे.

🔹तिल के तेल में इतनी ताकत होती है कि यह पत्थर को भी चीर देता है. प्रयोग करके देखें....
🔹आप पर्वत का पत्थर लिजिए और उसमे कटोरी के जैसा खडडा बना लिजिए, उसमे पानी, दुध, धी या तेजाब संसार में कोई सा भी कैमिकल, ऐसिड डाल दीजिए, पत्थर में वैसा की वैसा ही रहेगा, कही नहीं जायेगा...

🔹लेकिन.अगर आप ने उस कटोरी नुमा पत्थर में तिल का तेल डाल दीजिए,उस खड्डे में भर दिजिये.2 दिन बाद आप देखेंगे कि,तिल का तेल.पत्थर के अन्दर भी प्रवेश करके,पत्थर के नीचे आ जायेगा.यह होती है तेल की ताकत, इस तेल की मालिश करनेसे हड्डियों को पार करता हुआ,हड्डियों को मजबूती प्रदान करता है.
हिन्दू महिलाओं के सोलह श्रृंगार🙏🙏
सोलह श्रृंगार का रिश्ता हमेशा से ही औरतों की खूबसूरती के साथ जुड़ता आया है। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाये तो सोलह श्रृंगार और औरतों की खूबसूरती के बीच में चोली दामन जैसा ही रिश्ता है।


लेकिन यह जानने से पहले कि हिंदू महिलाओं के सोलह श्रृंगार में कौन कौन से साजो सामान आते हैं, इससे पहले हमारा यह जानना बेहद जरूरी है कि आखिरकार ये सोलह श्रृंगार होता क्या है और इसका नारियों के जीवन में क्या महत्व है।
हिन्दू महिलाओं के सोलह श्रृंगार का रिश्ता उनके सुहाग से होता है।


ऐसा माना जाता है कि औरतों की सुंदरता और खुद को संवारने के लिए किया गया श्रृंगार अधूरा है यदि उनके श्रृंगार में सोलह श्रृंगार शामिल न हो। सोलह श्रृंगार उनके सुहाग को लंबी उम्र के साथ साथ उनके घर परिवार की खुशियों को बरकरार रखने में मदद करता है।


1) स्नान – श्रृंगार पूर्व 
१६ श्रृंगारों में प्रथम चरण है स्नान। कोई भी और श्रृंगार करने से पूर्व नियम पूर्वक स्नान करने का अत्यंत महत्व है। स्नान में शिकाकाई, भृंगराज, आंवला, उबटन और अन्य कई सामग्रियां और नियम – इन सबका आयुर्वेद के ग्रंथों में विस्तार से जिक्र है।


2) बिंदी
हिन्दू परिवारों में सदियों से यह परंपरा चली आ रही है कि सुहागिन स्त्रियों को कुमकुम या सिंदूर से अपने माथे पर लाल बिंदी जरूर लगाना चाहिए। इसे परिवार की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
शास्त्रों में स्वच्छता के सूत्र

हमारे पूर्वज अत्यंत दूरदर्शी थे। उन्होंने हजारों वर्षों पूर्व वेदों व पुराणों में महामारी की रोकथाम के लिए परिपूर्ण स्वच्छता रखने के लिए स्पष्ट निर्देश दे कर रखें हैं-


1. लवणं व्यञ्जनं चैव घृतं तैलं तथैव च ।
लेह्यं पेयं च विविधं हस्तदत्तं न भक्षयेत् ।।
- धर्मसिन्धू ३पू. आह्निक

✍️नामक, घी, तेल, चावल, एवं अन्य खाद्य पदार्थ चम्मच से परोसना चाहिए हाथों से नही।

2. अनातुरः स्वानि खानि न स्पृशेदनिमित्ततः ।।
- मनुस्मृति ४/१४४

✍️अपने शरीर के अंगों जैसे आँख, नाक, कान आदि को बिना किसी कारण के छूना नही चाहिए।

3. अपमृज्यान्न च स्न्नातो गात्राण्यम्बरपाणिभिः ।।
- मार्कण्डेय पुराण ३४/५२

✍️एक बार पहने हुए वस्त्र धोने के बाद ही पहनना चाहिए। स्नान के बाद अपने शरीर को शीघ्र सुखाना चाहिए।

4. हस्तपादे मुखे चैव पञ्चाद्रे भोजनं चरेत् ।।
- पद्म०सृष्टि.५१/८८
नाप्रक्षालितपाणिपादो भुञ्जीत ।।
- सुश्रुतसंहिता चिकित्सा २४/९८

✍️अपने हाथ, मुहँ व पैर स्वच्छ करने के बाद ही भोजन करना चाहिए।
"पिपलन्त्री" राजसमंद , राजस्थान नाम का एक भारतीय गाँव है, जो हर बालिका के जन्म का जश्न मनाता है। 111 पेड़ लगाकर।‌‌

डेनमार्क के प्राइमरी स्कूलों में दिया जाता है राजस्थान के इस गाँव का उदाहरण!


राजसमंद जिले में बसे पिपलांत्री नाम के इस गाँव को ‘आदर्श ग्राम’, ‘निर्मल गाँव’, ‘पर्यटन ग्राम’, ‘जल ग्राम’, ‛वृक्ष ग्राम’, ‛कन्या ग्राम’, ‛राखी ग्राम’ जैसे विविध उपमाओं के साथ देशभर में पहचाना जाता है। इस गाँव पर सैकड़ों डॉक्यूमेंट्रीज बनी हैं।

राजस्थान के कक्षा सात व आठ की सरकारी पुस्तकों में पिपलांत्री को पाठ के रूप में पढ़ाया जा रहा है ।
वृक्षारोपण के बाद पिपलांत्री।
करीब दो हजार की आबादी वाले इस गाँव के बदलाव की कहानी 2005 के बाद से शुरू होती है

जब श्याम सुन्दर पालीवाल यहां के सरपंच बने। हालांकि पिपलांत्री पहले भी खूबसूरत हुआ करता था लेकिन मार्बल खनन क्षेत्र में बसे होने के चलते यहाँ की पहाड़ियां खोद दी गई, पानी पाताल में चला गया और प्रकृति के नाम पर कुछ भी नहीं बचा।

ऐसे में श्याम सुन्दर ने अपने गाँव की वन संपदाओं को नष्ट होते देख मुंह फेरकर निकल जाने की बजाय इन पहाड़ियों पर हरियाली की चादर ओढ़ाने की कसम खाई। उनके इसी संकल्प के चलते आज 15 साल बाद पिपलांत्री देश के उन चुनिंदा गाँवों की सूची में सबसे अव्वल नंबर पर आता है, जहाँ कुछ नया हुआ है।
हाबूर पत्थर
गजब हैं !!!
मेरी धरती मैया
दही जमा देनें वाला
दही जमाने के लिए लोग अक्सर जामन ढूंढ़ते नजर आते हैं... वहीं राजस्थान के जैसलमेर जिले में स्थित इस गांव में जामन की जरूरत नहीं पड़ती है...यहां ऐसा पत्थर है जिसके संपर्क में आते ही दूध जम जाता है...


इस पत्थर पर विदेशों में भी कई बार रिसर्च हो चुकी है...फॉरेनर यहां से ले जाते हैं इस पत्थर के बने बर्तन
स्वर्णनगरी जैसलमेर का पीला पत्थर विदेशों में अपनी पहचान बना चुका है. इसके साथ ही जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर स्थित हाबूर गांव का पत्थर अपने आप में विशिष्ट खूबियां समेटे हुए है

..इसके चलते इसकी डिमांड निरंतर बनी हुई है...हाबूर का पत्थर दिखने में तो खूबसूरत है ही, साथ ही उसमें दही जमाने की भी खूबी है... इस पत्थर का उपयोग आज भी जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में दूध को जमाने के लिए किया जाता है... इसी खूबी के चलते यह विदेशों में भी काफी लोकप्रिय है..

इस पत्थर से बने बर्तनों की भी डिमांड बढ़ गई है..।

कहा जाता है कि जैसलमेर पहले अथाह समुद्र हुआ करता था और कई समुद्री जीव समुद्र सूखने के बाद यहां जीवाश्म बन गए व पहाड़ों का निर्माण हुआ.. हाबूर गांव में इन पहाड़ों से निकलने वाले इस पत्थर में कई खनिज व अन्य जीवाश्मों की भरमार है.

जिसकी वजह से इस पत्थर से बनने वाले बर्तनों की भारी डिमांड है। साथ ही वैज्ञानिकों के लिए भी ये पत्थर शोध का विषय बन गया है... इस पत्थर से सजे दुकानों पर बर्तन व अन्य सामान पर्यटकों की खास पसंद होते हैं

More from All

You May Also Like

Great article from @AsheSchow. I lived thru the 'Satanic Panic' of the 1980's/early 1990's asking myself "Has eveyrbody lost their GODDAMN MINDS?!"


The 3 big things that made the 1980's/early 1990's surreal for me.

1) Satanic Panic - satanism in the day cares ahhhh!

2) "Repressed memory" syndrome

3) Facilitated Communication [FC]

All 3 led to massive abuse.

"Therapists" -and I use the term to describe these quacks loosely - would hypnotize people & convince they they were 'reliving' past memories of Mom & Dad killing babies in Satanic rituals in the basement while they were growing up.

Other 'therapists' would badger kids until they invented stories about watching alligators eat babies dropped into a lake from a hot air balloon. Kids would deny anything happened for hours until the therapist 'broke through' and 'found' the 'truth'.

FC was a movement that started with the claim severely handicapped individuals were able to 'type' legible sentences & communicate if a 'helper' guided their hands over a keyboard.