पुर रम्यता राम जब देखी।
हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापीं कूप सरित सर नाना।
सलिल सुधासम मनि सोपाना॥
गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा।
कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥
बरन बरन बिकसे बनजाता।
त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥
सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥
बनइ न बरनत नगर निकाई।
जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी।
मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी
धनिक बनिक बर धनद समाना।
बैठे सकल बस्तु लै नाना।
चौहट सुंदर गलीं सुहाई।
संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥
मंगलमय मंदिर सब केरें।
चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता।
धरमसील ग्यानी गुनवंता॥
अति अनूप जहँ जनक निवासू।
बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
होत चकित चित कोट बिलोकी।
सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥
धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥
सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा।
भूप भीर नट मागध भाटा॥
बनी बिसाल बाजि गज साला।
हय गय रख संकुल सब काला
सूर सचिव सेनप बहुतेरे।
नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
पुर बाहेर सर सरित समीपा।
उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा
देखि अनूप एक अँवराई।
सब सुपास सब भाँति सुहाई।
कौसिक कहेउ मोर मनु माना।
इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥
भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता।
उतरे तहँ मुनि बृंद समेता॥
बिस्वामित्र महामुनि आए।
समाचार मिथिलापति पाए॥
संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥
कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा।
दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
बिप्रबृंद सब सादर बंदे।
जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥
कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा।
बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई।
गए रहे देखन फुलवाई॥
स्याम गौर मृदु बयस किसोरा।
लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
उठे सकल जब रघुपति आए।
बिस्वामित्र निकट बैठाए॥
भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता।
बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
मूरति मधुर मनोहर देखी भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥
प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर।
कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक।
मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा।
उभय बेष धरि की सोइ आवा ।
सहज बिरागरूप मनु मोरा।
थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ।
कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका।
बचन तुम्हार न होइ अलीका।
ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी।
मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए।
मम हित लागि नरेस पठाए॥
रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥
मुनि तव चरन देखि कह राऊ।
कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता।
आनँदहू के आनँद दाता॥
इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि।
कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू।
ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥
सुंदर सदनु सुखद सब काला।
तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई।
गयउ राउ गृह बिदा कराई॥
रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥
लखन हृदयँ लालसा बिसेषी।
जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं।
प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥1
राम अनुज मन की गति जानी।
भगत बछलता हियँ हुलसानी॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई।
बोले गुर अनुसासन पाई
नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं।
प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं।
नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥
सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती।
कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता।
प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥
जाइ देखि आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥
मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता।
चले लोक लोचन सुख दाता॥
बालक बृंद देखि अति सोभा।
लगे संग लोचन मनु लोभा॥
पीत बसन परिकर कटि भाथा।
चारु चाप सर सोहत हाथा॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी।
स्यामल गौर मनोहर जोरी॥
केहरि कंधर बाहु बिसाला।
उर अति रुचिर नागमनि माला॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन।
बदन मयंक तापत्रय मोचन॥
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं।
चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी।
तिलक रेख सोभा जनु चाँकी
रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥
देखन नगरु भूपसुत आए।
समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
धाए धाम काम सब त्यागी।
मनहुँ रंक निधि लूटन लागी॥
निरखि सहज सुंदर दोउ भाई।
होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं।
निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥
कहहिं परसपर बचन सप्रीती।
सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं।
सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं
बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी।
बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥
अपर देउ अस कोउ ना आही।
यह छबि सखी पटतरिअ जाही
बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम
कहहु सखी अस को तनु धारी।
जो न मोह यह रूप निहारी॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी।
जो मैं सुना सो सुनहु सयानी
ए दोऊ दसरथ के ढोटा।
बाल मरालन्हि के कल जोटा॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे।
जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥
स्याम गात कल कंज बिलोचन।
जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी।
नामु रामु धनु सायक पानी॥
गौर किसोर बेषु बर काछें।
कर सर चाप राम के पाछें॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता।
सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥
बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥
देखि राम छबि कोउ एक कहई।
जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू।
पन परिहरि हठि करइ बिबाहू
कोउ कह ए भूपति पहिचाने।
मुनि समेत सादर सनमाने॥
सखि परंतु पनु राउ न तजई।
बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई
जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू।
तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
सखि हमरें आरति अति तातें।
कबहुँक ए आवहिं एहि नातें
नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥
बोली अपर कहेहु सखि नीका।
एहिं बिआह अति हित सबही का।
कोउ कह संकर चाप कठोरा।
ए स्यामल मृदु गात किसोरा
सबु असमंजस अहइ सयानी।
यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं।
बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥
परसि जासु पद पंकज धूरी।
तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
सो कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरें।
यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥
जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी।
तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं।
ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं॥
हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥
पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई।
जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी।
बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥
चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला।
रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा।
अपर मंच मंडली बिलासा॥
कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई।
बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए।
धवल धाम बहुबरन बनाए॥
जहँ बैठें देखहिं सब नारी।
जथाजोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना।
सादर प्रभुहि देखावहिं रचना
सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥
सिसु सब राम प्रेमबस जाने।
प्रीति समेत निकेत बखाने॥
निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई।
सहित सनेह जाहिं दोउ भाई
राम देखावहिं अनुजहि रचना।
कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥
लव निमेष महुँ भुवन निकाया।
रचइ जासु अनुसासन माया॥
भगति हेतु सोइ दीनदयाला।
चितवत चकित धनुष मखसाला॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं।
जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥
जासु त्रास डर कहुँ डर होई।
भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं।
किए बिदा बालक बरिआईं॥
सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥
निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा।
सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥
कहत कथा इतिहास पुरानी।
रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥
मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई।
लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी।
करत बिबिध जप जोग बिरागी॥
तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते।
गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बार बार मुनि अग्या दीन्ही।
रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥
चापत चरन लखनु उर लाएँ।
सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता।
पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥
उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥
सकल सौच करि जाइ नहाए।
नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय जानि गुर आयसु पाई।
लेन प्रसून चले दोउ भाई॥
भूप बागु बर देखेउ जाई।
जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना।
बरन बरन बर बेलि बिताना
नव पल्लव फल सुमन सुहाए।
निज संपति सुर रूख लजाए॥
चातक कोकिल कीर चकोरा।
कूजत बिहग नटत कल मोरा
मध्य बाग सरु सोह सुहावा।
मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा।
जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥
बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥
चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन।
लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई।
गिरिजा पूजन जननि पठाई॥
संग सखीं सब सुभग सयानीं।
गावहिं गीत मनोहर बानीं॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा।
बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥
मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता।
गई मुदित मन गौरि निकेता॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा।
निज अनुरूप सुभग बरु मागा
एक सखी सिय संगु बिहाई।
गई रही देखन फुलवाई॥
तेहिं दोउ बंधु बिलोके जाई।
प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥
तासु दसा देखी सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहिं सब मृदु बैन॥
देखन बागु कुअँर दुइ आए।
बय किसोर सब भाँति सुहाए॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी।
गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।
सुनि हरषीं सब सखीं सयानी।
सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली।
सुने जे मुनि सँग आए काली॥
जिन्ह निज रूप मोहनी डारी।
कीन्हे स्वबस नगर नर नारी॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू।
अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥
तासु बचन अति सियहि सोहाने।
दरस लागि लोचन अकुलाने॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई।
प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥
सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि।
कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही।
मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा।
सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचंचल।
मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥
देखि सीय शोभा सुखु पावा।
हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई।
बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई
सुंदरता कहुँ सुंदर करई।
छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी।
केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥
सिय शोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि॥
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥
तात जनकतनया यह सोई।
धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
पूजन गौरि सखीं लै आईं।
करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥
जासु बिलोकि अलौकिक सोभा।
सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान बिधाता।
फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ।
मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी।
जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥
जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी।
नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं।
ते नरबर थोरे जग माहीं॥
करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥
चितवति चकित चहूँ दिसि सीता।
कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी।
जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥
लता ओट तब सखिन्ह लखाए।
स्यामल गौर किसोर सुहाए॥
देखि रूप लोचन ललचाने।
हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥
थके नयन रघुपति छबि देखें।
पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी।
सरद ससिहि जनु चितव चकोरी
लोचन मग रामहि उर आनी।
दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी।
कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥
लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
तकिसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाई॥
सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा।
नील पीत जलजाभ सरीरा॥
मोरपंख सिर सोहत नीके।
गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥
भाल तिलक श्रम बिन्दु सुहाए।
श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे।
नव सरोज लोचन रतनारे॥
चारु चिबुक नासिका कपोला।
हास बिलास लेत मनु मोला॥
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं।
जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥
उर मनि माल कंबु कल गीवा।
काम कलभ कर भुज बलसींवा॥
सुमन समेत बाम कर दोना।
सावँर कुअँर सखी सुठि लोना
केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥
केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥
धरि धीरजु एक आलि सयानी।
सीता सन बोली गहि पानी॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू।
भूपकिसोर देखि किन लेहू॥
सकुचि सीयँ तब नयन उघारे।
सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥
नख सिख देखि राम कै सोभा।
सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥
परबस सखिन्ह लखी जब सीता।
भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली।
अस कहि मन बिहसी एक आली॥
गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी।
भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने।
फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥
देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥
जानि कठिन सिवचाप बिसूरति।
चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु जब जात जानकी जानी।
सुख सनेह सोभा गुन खानी॥
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही।
चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी।
बंदि चरन बोली कर जोरी॥
जय जय गिरिबरराज किसोरी।
जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता।
जगत जननि दामिनि दुति गाता
नहिं तव आदि मध्य अवसाना।
अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि।
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥
पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥
सेवत तोहि सुलभ फल चारी।
बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥
मोर मनोरथु जानहु नीकें।
बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं।
अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥
बिनय प्रेम बस भई भवानी।
खसी माल मूरति मुसुकानी॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ।
बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥
सुनु सिय सत्य असीस हमारी।
पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा।
सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥