कार्तिक मास की पूर्णिमा को त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार, इसी दिन भगवान शिव ने तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली के त्रिपुरों का नाश किया था। त्रिपुरों का नाश करने के कारण ही भगवान शिव का एक नाम त्रिपुरारी भी प्रसिद्ध है।

भगवान शिव के त्रिपुरारी कहलाने के पीछे एक बहुत ही रोचक कथा है। शिव पुराण के अनुसार जब भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने दैत्यराज तारकासुर का वध किया तो उसके तीन पुत्र तारकक्ष, विमलाकक्ष, तथा विद्युन्माली अपने पिता की मृत्यु पर बहुत दुखी हुए।
उन्होंने देवताओ और भगवान शिव से अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने की ठानी तथा कठोर तपस्या के लिए ऊंचे पर्वतो पर चले गए। अपनी घोर तपस्या के बल पर उन्होंने ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अमरता का वरदान माँगा। परन्तु ब्रह्मा जी ने कहा की मैं तुम्हे यह वरदान देने में असमर्थ हूँ
अतः मुझ से कोई अन्य वरदान मांग लो। तब तारकासुर के तीनो पुत्रो ने ब्रह्मा जी से कहा की आप हमारे लिए तीन पुरों का निर्माण करवाइये तथा इन पुरों के अंदर बैठे-बैठे हम पृथ्वी का भ्रमण आकाश मार्ग से करते रहें। जब एक हजार साल बाद यह पुर एक दूसरे के पीछे एक ही दिशा में आयें...
...उस समय जो कोई देवता इन त्रिपुरों को केवल एक ही बाण में नष्ट कर दे वही हमारी मृत्यु का कारण बने।

ब्रह्माजी ने तीनो को यह वरदान दे दिया व एक मयदानव को प्रकट किया। ब्रह्माजी ने मयदानव से तीन पुरों का निर्माण करवाया जिनमे पहला सोने का दूसरा चांदी का व तीसरा लोहे का था।
जिसमे सोने का नगर तारकक्ष, चांदी का नगर विमलाकक्ष व लोहे का महल विद्युन्माली को मिला।तपस्या के प्रभाव व ब्रह्मा के वरदान से तीनो असुरो में असीमित शक्तियां आ चुकी थी जिससे तीनो ने लोगो पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने पराक्रम के बल पर तीनो लोको में अधिकार कर लिया।
इंद्र समेत सभी देवता अपने जान बचाते हुए भगवान शिव की शरण में गए तथा उन्हें तीनो असुरो के अत्याचारों के बारे में बताया। देवताओं आदि के निवेदन पर भगवान शिव त्रिपुरों को नष्ट करने के लिए तैयार हो गए। स्वयं भगवान विष्णु, शिव के धनुष के लिए बाण बने व उस बाण की नोक अग्नि देव बने।
हिमालय भगवान शिव के लिए धनुष में परिवर्तित हुए व धनुष की प्रत्यंचा शेष नाग बने। भगवान विश्वकर्मा ने शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण करवाया जिसके पहिये सूर्य व चन्द्रमा बने. इंद्र, वरुण, यम कुबेर आदि देव उस रथ के घोड़े बने।
उस दिव्य रथ में बैठ व दिव्य अस्त्रों से सुशोभित भगवान शिव युद्ध स्थल में गए जहाँ तीनों दैत्य पुत्र अपने त्रिपुरों में बैठ हाहाकार मचा रहे थे। जैसे ही त्रिपुर एक सीध में आये भगवान शिव ने अपने अचूक बाण से उन पर निशाना साध दिया।
देखते ही देखते उन त्रिपुरों के साथ वे दैत्य भी जलकर भस्म हो गए और सभी देवता आकाश मार्ग से भगवान शिव पर फूलों की वर्षा कर उनकी जय-जयकार करने लगे। उन तीनो त्रिपुरों के अंत के कारण ही भगवान शिव त्रिपुरारी और त्रिपुरांतक के नाम से जाने जाने लगे ।
कहते हैं कि त्रिपुरों के अन्त के बाद भगवान शिव ने भस्म से अपने माथे पर त्रिपुंड धारण किया और ये प्रथा तभी से शुरु हुई।आज भी शिव-भक्त अपने माथे पर त्रिपुंड धारण कर शिवमय होते हैं।

हर हर महादेव 🌺🙏

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THE MEANING, SIGNIFICANCE AND HISTORY OF SWASTIK

The Swastik is a geometrical figure and an ancient religious icon. Swastik has been Sanatan Dharma’s symbol of auspiciousness – mangalya since time immemorial.


The name swastika comes from Sanskrit (Devanagari: स्वस्तिक, pronounced: swastik) &denotes “conducive to wellbeing or auspicious”.
The word Swastik has a definite etymological origin in Sanskrit. It is derived from the roots su – meaning “well or auspicious” & as meaning “being”.


"सु अस्ति येन तत स्वस्तिकं"
Swastik is de symbol through which everything auspicios occurs

Scholars believe word’s origin in Vedas,known as Swasti mantra;

"🕉स्वस्ति ना इन्द्रो वृधश्रवाहा
स्वस्ति ना पूषा विश्ववेदाहा
स्वस्तिनास्तरक्ष्यो अरिश्तनेमिही
स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु"


It translates to," O famed Indra, redeem us. O Pusha, the beholder of all knowledge, redeem us. Redeem us O Garudji, of limitless speed and O Bruhaspati, redeem us".

SWASTIK’s COSMIC ORIGIN

The Swastika represents the living creation in the whole Cosmos.


Hindu astronomers divide the ecliptic circle of cosmos in 27 divisions called
https://t.co/sLeuV1R2eQ this manner a cross forms in 4 directions in the celestial sky. At centre of this cross is Dhruva(Polestar). In a line from Dhruva, the stars known as Saptarishi can be observed.

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