प्रश्न : पृथ्वी से 28 लाख गुना भगवान श्री सूर्य नारायण को श्री हनुमान जी कैसे निगल गये थे ? क्या यह विज्ञान के साथ मजाक नहीं है ?

नही विज्ञान के साथ मजाक नही बल्कि यही तो विज्ञान का सबसे मूल आधार है जो हमारा सनातन धर्म डंके की चोट पर कह रहा है।

खुले मस्तिष्क के साथ इस बात को समझेंगे तो बहुत कुछ रहस्य समझ में आयेंगे..

मित्रो सूर्य भी रुद्र और हनुमानजी भी रुद्र तथा ये समूचा दृश्यमान जगत भी तो रुद्र का एक अंश मात्र ही है फिर एक रुद्र ने दूसरे रुद्र को अपने में समाहित कर भी लिया तो रुद्र ही शेष रहेंगे ना?
बात अभी समझ नही आई होगी आपको, कोई बात नही, पहले हम इस रुद्र के कॉन्सेप्ट को समझे की कैसे सूर्य एवम् हनुमान दोनो रुद्र ही है। अब पहला प्रश्न आएगा की सूर्यदेव रुद्र कैसे? सूर्यदेव भला किस प्रकार शिव के स्वरूप है?

प्रमाण के लिए यजुर्वेद के दो मंत्र देखिए:
मंत्र क्रमांक 5 का शब्द अर्थ:

उदय के समय ताम्रवर्ण (अत्यन्त रक्त), अस्तकाल में अरुणवर्ण (रक्त), अन्य समय में वभ्रु (पिंगल) – वर्ण तथा शुभ मंगलों वाला जो यह सूर्यरूप है, वह रुद्र ही है. किरणरूप में ये जो हजारों रुद्र इन आदित्य के सभी ओर स्थित हैं,
इनके क्रोध का हम अपनी भक्तिमय उपासना से निवारण करते हैं। मंत्र क्रमांक 6 का शब्द अर्थ:

जिन्हें अज्ञानी गोप तथा जल भरने वाली दासियाँ भी प्रत्यक्ष देख सकती हैं, विष धारण करने से जिनका कण्ठ नीलवर्ण का हो गया है, तथापि विशेषत: रक्तवर्ण होकर जो सर्वदा उदय और अस्त को प्राप्त
होकर गमन करते हैं, वे रविमण्डल स्थित रुद्र हमें सुखी कर दें। अब श्री हनुमानजी महाराज तो साक्षात एकादश रुद्र के अवतार है ही जो संसार की समस्त रामायणें (वाल्मीकि रामायण, आध्यात्म रामायण, कम्ब रामायण, कृत्तिवास रामायण, आनंद रामायण, भूषुण्डी रामायण एवम् अनेक) तथा
पुराण भी एकमत होकर करके कह रहे है:

जेहि सरीर रति राम सो सोई आदरहि सुजान ।
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान ।।

(दोहावली १४२)

मेष लग्ने अंजनी गर्भात् स्वयं जातो हरः शिवः

(वायुपुराण)

यो वै चैकादशो रुद्रो हनुमान् स महाकपिहिः

(स्कंदपुराण माहेश्वर संहिता)
अब आधुनिक वाले विज्ञान की बात करते है

एच2ओ यानी पानी जैसे सरलतम उदाहरण से अपनी बात को प्रमाण देने जा रहा हूं नदी में भी वही एच2ओ बह रहा है और समुद्र में भी वही एच2ओ बह रहा है है ना फिर नदियों का जल जब अंत में समुद्र पी जाता है तब क्या होता है
वही एच2ओ यानी जल ही तो रहता है ना?
ठीक वैसे ही रुद्र के एक स्वरूप हनुमान जी ने रुद्र के दूसरे स्वरूप सूर्य देव को अपने में विलीन कर भी लिया तो भी रुद्र ही शेष रहेंगे। भले वो स्वरूप हनुमान है या स्वरूप सूर्य है, वो रुद्र ही रहेंगे ना?
जब पदार्थ एक ही है तो निगल लेने का विलीन कर लेने के बाद भी कोई बदलाव तो होना
नही है, ठीक वैसे ही जैसे नदी का जल और समुद्र का जल कोई अलग पदार्थ नही बनेगा, वो वही का वही जल ही रहने वाला है।

अब आगे हनुमानजी की इस अद्भुत बाल लीला का मूल आपलोगाें के सामने रखने जा रहा हूं जिससे भ्रांतियों का नाश होगा ऐसा मेरा विश्वास है।
ये प्रसंग आध्यात्म रामायण तथा स्कंदपुराण (अवंतीखंड) में जैसा वर्णित है उसी के अनुसार लिखने जा रहा हूं:

नन्हे से हनुमान जी महाराज पालने में झूल रहे है की तभी उन्हें भूख लग आई, आकाश में देखा तो नारंगी के फल के समान सूर्यदेव दैदीप्यमान हो रहे थे बस उन्हें ही फल समझकर खाने के लिए
इन्होंने अंतरिक्ष में छलांग लगा दी। वहां जब सूर्यदेव ने देखा की शिव के साक्षात स्वरूप हनुमान मेरे सूर्यमंडल में क्रीड़ा करने आ रहे है तो उन्होंने तुरंत अपनी किरणों को शीतल कर लिया और हनुमान जी ने बड़ी सरलता से सूर्यमंडल में प्रवेश कर लिया।
वहां पहुंचकर वो चंद्रमौलेश्वर शंकर के स्वरूप हनुमानजी अपने रुद्र स्वरूप सूर्यदेव के रथ में विराजित हो गए और शिशु लीला करने लगे, वे सूर्यदेव के साथ खेलने लगे, बाल सुलभ क्रीड़ा करने लगे। संयोग से वो अमावस्या का दिन था और सूर्यदेव पर ग्रहण लगने का पर्व भी था, उसी समय
सिंहिका का पुत्र राहु सूर्य को ग्रस्त करने वहां सूर्यमंडल में आया। सूर्यदेव के रथ पर बालक हनुमान को देखकर भी राहु ने अभिमानवश अनदेखी की और सूर्य को ग्रस्त करने आगे बढ़ा ही था की इतने में हनुमान जी न राहु को अपने छोटे छोटे हाथो में दबोच लिया, वो बुरी तरह से छटपटाने लगा और
सूर्य पर ग्रहण लगा ही नहीं पाया।
जैसे तैसे स्वयं को बालक हनुमान के हाथ से छुड़ाकर वो इंद्र के पास गया और क्रोधित होकर कहा की"हे इन्द्र! आपने ही तो मेरे तोषण के लिए पर्व आने पर सूर्य को ग्रहण करने की व्यवस्था की है, फिर आज मुझे एक नन्हे से वानर बालक ने
कैसे सूर्य ग्रहण करने से रोक दिया?"इंद्र के मन में विस्मय हुआ की भला सूर्यमंडल तक पहुंचने की शक्ति किसमे आ गई है? भला कौन महान आत्मा सूर्य की किरणों से दग्ध (जल जाने) हुए बिना सूर्य के रथ पर सवार हो गया है?

वे राहु के साथ तुरंत सूर्यदेव के पास चले….
इतने में राहु ने पुनः से गति पकड़ी और पूरी शक्ति से सूर्य को ग्रहण करने चला और हनुमानजी को राहु को आता देखकर पुनः से भूख की स्मृति हो आई तथा उसे एक फल समझकर उसी को खाने हनुमानजी लपके। राहु भयभीत होकर इंद्र के पास प्राण रक्षा करने की प्रार्थना लिए भागे,
इधर हनुमानजी भी उसके पीछे पीछे ही थे। उन्होंने ऐरावत हाथी और उसपर सवार इंद्र को देखा तो उसे भी कोई मधुर फल समझकर ऐरावत समेत इंद्र को खाने के लिए छलांग लगा दी और फिर इंद्र ने अपने वज्र का प्रहार कर दिया।
शिव स्वरूप हनुमान ने अपने भक्त दधीचि की अस्थियों से बने उस वज्र का सम्मान रखने के लिए अपने हनु (थोड़ी) पर एक घाव स्वीकार कर लिया और मूर्छित होने की लीला की। फिर पवन देव ने अपने पुत्र हनुमान के मूर्छित हो जाने पर सारे जगत की वायु रोक दी और प्रलय की स्थिति निर्मित हो गई
जिसके पश्चात ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इंद्र, यम, कुबेर, अग्नि समेत समस्त देवों ने आशीर्वाद की वर्षा करके असंख्य वरदान देकर नन्हे से हनुमान जी को प्रसन्न किया और इसके अनन्तर वायु देव ने पुनः से वायु का संचार जगत में किया जिससे संसार का हाहाकार समाप्त हुआ।
यद्यपि परमेश्वर शिव स्वरूप हनुमान जी को इन किसी भी वरदान की आवश्यकता थी नही, क्योंकि इस मायामय जगत के निर्माता ही वे स्वयं है उनसे परे तो कुछ भी नही है, तथापि श्रीराम अवतार में मधुर मधुर लीला प्रसंग करने हेतु उन्होंने सब वरदान स्वीकार किए।
आध्यात्म रामायण तथा स्कंद पुराण में यही लीला का वर्णन है।

बाल समय रवि भक्ष लियो तब तीनहु लोक भयो अंधियारो"

तुलसी बाबा बड़ी गूढ़ भाषा में कहते है ये, इसके पीछे राहु भक्षण की लीला का रहस्य छुपा हुआ है और तीनो लोक में वायु रुक जाने से जो अंधियारा
जो हाहाकार व्याप्त हो गया था उसका वर्णन तुलसी बाबा कर रहे है यहां। श्रीराम ने अयोध्या में अपनी सभा में एक बार कहा था:

लंका युद्ध में कोई भी एक ऐसा वीर नही था जो श्री हनुमान जी के "चरणों के नाखून की भी बराबरी कर सके। अगर हनुमान संकल्प कर लेते तो निमिष मात्र
में रावण समेत समूची शत्रु सेना का संहार हो जाता।" (वाल्मीकी रामायण उत्तरकांड)

More from पंडित विशाल श्रोत्रिय 🇮🇳

प्रश्न = कैसे सिद्ध होता है कि शब्द यात्रा करते हैं ?

बहुत ही रोचक प्रश्न किया है आपने। यहाँ पर हम शब्दों की यात्रा में निहित वैज्ञानिक व दार्शनिक पक्षों के विषय पर चर्चा करेंगे।

हमारे शब्द एक ऊर्जा का रूप ही होते है, जो एक बार शब्द उच्चारित हो गए,


फिर वे वायुमंडल में ही चिर निरंतर के लिए स्थित हो जाते है और यात्रा करते रहते है। कैसे और किस प्रकार?? आगे जानेंगे;

शोधकर्ताओं का मत है कि यदि 50 लोग 3 घंटे तक लगातार एक शब्द उच्चारित करते रहे, तो लगभग छह हज़ार खरब वॉट ऊर्जा उत्पादित होती हैं। याने कि जब हम कोई भी शब्द बोलते है

तो उसका ब्लू प्रिंट ऊर्जा तरंगों के रूप में वायुमंडल में ठहर जाता है। और ये शब्द तरंग कभी भी नष्ट नहीं होती।

जैसा कि न्यूटन की गति का तीसरा नियम- 'ऊर्जा का न तो सृजन और न ही विनाश सम्भव है।'

इस प्राकृतिक नियम पर वैज्ञानिकों को इतना विश्वास है कि इसके बलबूते पर वे द्वापर कालीन गीता उपदेश की शब्द तरंगों को पकड़ने का प्रयास कर रहे हैं। उनका मत है कि हजारों वर्ष पूर्व श्री केशव ने जो गीता श्लोक अपने मुखारविंद से कहे थे, वे आज भी वायुमंडल में यात्रा कर रहे है।

सूक्ष्म तरंगों के रूप में!

यदि इन तरंगों को कैद कर डिकोड कर लिया जाए, तो हम आज भी कृष्ण जी की प्रत्यक्ष वाणी का श्रवण कर सकते हैं!

आतः जिन शब्दों का एक बार हमारे मुख से प्रस्फुटन हो गया, उनकी ऊर्जा-तरंगें हमेशा के लिए वातावरण में विद्यमान हो जाती हैं।
प्रश्न = किस तरह से चौरासी लाख योनियों के चक्र का शास्त्रों में वर्णन है ?

धर्म शास्त्रों और पुराणों में 84 लाख योनियों का उल्लेख मिलता है और इन योनियों को दो भागों में बाटां गया है। पहला- योनिज और दूसरा आयोनिज।


1- ऐसे जीव जो 2 जीवों के संयोग से उत्पन्न होते हैं वे योनिज कहे जाते हैं। 2- ऐसे जीव जो अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होते हैं उन्हें आयोनिज कहा गया है

3- इसके अतिरिक्त स्थूल रूप से प्राणियों को भी 3 भागों में बांटा गया है-

1- जलचर- जल में रहने वाले सभी प्राणी।

2- थलचर- पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी प्राणी।

3- नभचर- आकाश में विहार करने वाले सभी प्राणी। उक्त 3 प्रमुख प्रकारों के अंतर्गत मुख्य प्रकार होते हैं अर्थात 84 लाख योनियों में प्रारंभ में निम्न 4 वर्गों में बांटा जा सकता है।

1- जरायुज- माता के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य, पशु जरायुज कहलाते हैं।

2- अंडज- अंडों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अंडज कहलाते हैं।
3- स्वदेज- मल-मूत्र, पसीने आदि से उत्पन्न क्षुद्र जंतु स्वेदज कहलाते हैं।

4- उदि्भज: पृथ्वी से उत्पन्न प्राणी उदि्भज कहलाते हैं।

पदम् पुराण के एक श्लोकानुसार...जलज नव लक्षाणी, स्थावर लक्ष विम्शति, कृमयो रूद्र संख्यक:।

पक्षिणाम दश लक्षणं, त्रिन्शल लक्षानी पशव:, चतुर लक्षाणी मानव:।।

जलचर 9 लाख, स्थावर अर्थात पेड़-पौधे 20 लाख, सरीसृप, कृमि अर्थात कीड़े-मकौड़े 11 लाख, पक्षी/नभचर 10 लाख,
प्रश्न = इतिहास में पाशुपतास्त्र कब कब इस्तेमाल हुआ ?

पाशुपतास्त्र बहुत विध्वंसक महास्त्र है और इतिहास में केवल कुछ लोग ही थे जिनके पास ये अस्त्र था। उसपर भी बहुत कम लोगों ने इस अस्त्र का उपयोग किया। पाशुपतास्त्र के उपयोग का सबसे बड़ा नियम ये था कि उसे अपने से निर्बल अथवा


किसी निःशस्त्र योद्धा पर नहीं चलाया जा सकता था। अगर ऐसा किया जाता तो पाशुपतास्त्र वापस चलाने वाले का ही नाश कर देता था। ऐसी मान्यता है कि जब सृष्टि का समय पूर्ण हो जाता है तो महादेव सृष्टि का विनाश पाशुपतास्त्र और अपने तीसरे नेत्र से ही करते हैं।

इसके अतिरिक्त जहाँ ब्रह्मास्त्र का निवारण दूसरे ब्रह्मास्त्र से और नारायणास्त्र का निवारण दूसरे नारायणास्त्र अथवा निःशस्त्र होकर किया जा सकता था, वही पाशुपतास्त्र का कोई निवारण नहीं था। इसके द्वारा किये गए विध्वंस को वापस ठीक नहीं किया जा सकता था।

यही कारण है कि त्रिदेवों के तीन महास्त्रों (ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र और पाशुपत) में पाशुपतास्त्र को सबसे विनाशकारी माना गया है। सबसे पहले पाशुपतास्त्र का उपयोग भगवान शंकर द्वारा ही सतयुग में हुआ जिससे उन्होंने त्रिपुर का संहार किया।

ऐसी मान्यता है कि उन्होंने पाशुपतास्त्र का निर्माण ही केवल इस कार्य के लिए किया था। त्रेतायुग में इस महान अस्त्र के पांच लोगों के पास होने की जानकारी मिलती है - विश्वामित्र, भगवान परशुराम, रावण, मेघनाद और श्रीराम इनमें से मेघनाद को छोड़ कर बांकी चारों के पास पाशुपतास्त्र होने
#धागा

अट्ठारह पुराणों का संक्षिप्त परिचय

पुराण शब्द का अर्थ ही है प्राचीन कथा, पुराण विश्व साहित्य के सबसे प्राचीन ग्रँथ हैं, उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं..


वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है, पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है, पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य बहुत से विषय हैं,..


विशेष तथ्य यह है कि पुराणों में देवी-देवताओं, राजाओं, और ऋषि-मुनियों के साथ साथ जन साधारण की कथाओं का भी उल्लेख किया गया हैं, जिस से पौराणिक काल के सभी पहलूओं का चित्रण मिलता है।


महृर्षि वेदव्यासजी ने अट्ठारह पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है, ब्रह्मदेव, श्री हरि विष्णु भगवान् तथा भगवान् महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं, त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः पुराण समर्पित किये गये हैं, इन अट्ठारह पुराणों के अतिरिक्त सोलह उप-पुराण भी हैं।


पुराणों का संक्षिप्त परिचय:

1. #ब्रह्म_पुराण

ब्रह्मपुराण सब से प्राचीन है, इस पुराण में दो सौ छियालीस अध्याय तथा चौदह हजार श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में ब्रह्माजी की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा अवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं,..
प्रश्न = भारतीय पुराणों के मुताबिक़ रामायण-महाभारत काल में अमेरिका आदि बाकी देश कहाँ थे ?

हम हमारे प्रश्नो के उत्तर सही जगह नहीं खोज रहे !

जी हा , दूसरे देशो और संस्कृतियों का हमारे प्राचीन ग्रंथो /पुराणों में उल्लेख है ,किन्तु हम वहा नहीं खोज रहे आप वाल्मीकि रामायण के


विभिन्न देशो के सन्दर्भ पाएगे। यह उत्तर लम्बा है ,कित्नु आप सभी को निश्चित ही पसंद आएगा !

ऑस्ट्रेलिया ,न्यूज़ीलैण्ड एवं परकास ट्रिडेंट पेरू

रामायण में रामजी की अपहृत पत्नी सीताजी को खोजने के लिए चार अलग-अलग दिशाओं में खोजने निकले वानरों

(वन में भटकने वाले मनुष्य) के बारे में वर्णन किया गया है।

वानर राजा सुग्रीव ने उसपूर्व की ओर यात्रा करते खोजी समूह को बताया था की , कि पहले उन्हें समुद्र पार करना होगा और याव (जावा) द्वीप में उतरना होगा।

उसके बाद उन्हें एक और द्वीप पार करके एक लाल /पीले पानी वाले समुद्र तक पहुंचना होगा (ऑस्ट्रेलिया का कोरल समुद्र ),तब उन्हें पिरामिड (वर्तमान में ऑस्ट्रेलिया के पश्चिमी छोर पर मौजूद गिम्पी पिरामिड ) मिलेंगे।

सुग्रीव के पात्र द्वारा रचियता वाल्मीकिजी ने आगे लिखाः है की

इस महाद्वीप (शाल्मली / ऑस्ट्रेलिया ) को पार करने के बाद उन्हें ऋषभ पर्वत मिलेगा , जो ‘नीचे मोतिओं की माला जैसी जैसे लहरों वाला एक श्वेत बादल ‘ जैसा दिखता है !

उसी के पास ,उन्हें सुदर्शन सरोवर मिलेगा , जिसमे ‘सोने जैसी पंखुड़ियों वाले चांदी जैसे कमल’ खिले हुए होंगे !

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