Swami Karpatri on inability of an idol to defend itself.
एक बार काशी के एक योग्य विद्वान्ने मुझसे कहा कि ‘आज दुर्गाजीकी चाँदीकी आँखोंको चोर चुरा ले गये। महाराज! यदि दुर्गाजीसे अपने ही आँखोंकी रक्षा न हुई, तब वे हम सबकी रक्षा कैसे कर सकेंगी?’ किसी एक और व्यक्तिने शिवजीपर चढ़े हुए अक्षत या फलोंको ले जाती हुई मूषिकाको देखकर +
यह समझ लिया था कि ‘मूर्तिपूजा व्यर्थ है, मूर्तिमें देवत्व नहीं है।’
ऐसी बातोंपर विचार करनेसे विदित होता है की यह कितनी मोती दृष्टिकी बात है। व्यापक परब्रह्म परमात्मा सर्वत्र ही रहता है, सम्पूर्ण विश्व उन्हींमें रहता है। सोना, उठना, बैठना सम्पूर्ण कर्म उन्हींमे होता +
है। जिस तरह गर्भस्थ बालककी सम्पूर्ण चेष्टाएँ माँके गर्भमें ही होती हैं, फिर भी माता कुपित नहीं होती। वैसे ही जीवोंकी अनेक हलचलें उसी परमात्मामें होती हैं, क्षमाशील परमात्मा सबको ही सहन करता है। +
उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे।
किमस्तिनास्तिव्यपदेशभूषितं तवास्ति कुक्षेः कियदप्यनन्तः।।
(श्रीमद्भा० १०।१४।१२)
ब्रह्माजी कहते हैं ― ‘हे अधोक्षज! गर्भगत बालकके पादोत्क्षेपणको जननी क्या अपराध मानती है? यदि नहीं तो अस्तिनास्ति व्यपदेशसे भूषित +